पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६९८

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६६३ काव्य-निर्णय अथ त्यक्त पुनः स्वीकृत दोष-लच्छन-उदाहरन जथा- 'त्यक पुनः स्वीकृत' कहें, छाँडि' बात (नि लेत । "मो सुधि-बुधि हरि हर लई, काँम करों डर-हेत ।। अस्य तिलक इहाँ नायिका (स्त्री) की सुधि-बुधि हरि जाती तो कॉम कैसे कर सकती- नाहीं कर सकती, गै दोष है। वि-"कन्हैयालाल पोद्दार ने अपने 'काव्य-कल्पद्र म' में “त्यक्त पुनः स्वी- कृत" का लक्षण--'किसी अर्थ का त्याग कर फिर उसी को स्वीकार करना" लिखते-मानते हुए, इसके उदाहरण में स्व० बा० जगन्नाथदास 'रत्नाकर' का एक छंद दिया है, यथा- "माँन-ठाँन बैठ्यौ इत परम सुजॉन कान्ह, भोंहें तीन बाँनक बनाइ गरबीली को। कहै 'रतनाकर' बिसद अति बाँकी बन्यो, विपिन - बिहारी बेस बाँनक लहीली को। लखि - लखि भाजु की अनूप सुखमाँ को रूप, रोपै रस रुचिर मिठास लौन - सीली को। ललकि लचबौ लोल लोचन लला को इत, मधलि मनैवो उत राधिका रसीली को। और लिखा है उक्त छंद के तीसरे चरण तक वर्णन की समाप्ति हो चुकी है, फिर चौथे चरण में उसी विषय का वर्णन किया जाने में--त्यक्त पुनः दोष है। यह लक्षणानुसार उदाहरण बताने वाली 'टिप्पणी' हमारी समझ में नहीं आई, कारण वर्णन तीसरे चरण तक समाप्त नहीं हुआ है.-उस (वर्णन) का प्राण तो छंद के चोथे चरण में उलझा हुअा है, वह उससे विलग किस प्रकार हो सकता है। अस्तु, पाप-मान्य यह उदाहरण-'त्यक्त पुनः स्वीकृत' का गलत है-असंगत है, फिर आपने उक्त छंद भी अधिक अशुद्ध दिया है (दे० रत्नाकर-'प्रथम संस्करण' मुंगार-लहरी छं०सं०-४६,५० पृ० सं०--३३१) उसके प्राण-ही हरण हो गये है, उस पर उक्त टिप्पणी- पा-का0)(40) (प्र०) कोरि"। "