काव्य-निर्णय ६८ अस्तु, दासजी का "सामान्यप्रवृत्त" उदाहरण रूप दोहा-रेन स्याम रंग पूरि, ससि चूरि, कमल करि दूरि ।" इत्यादि एक ही बात है और सामान्यप्रवृत्त का उदाहरण, जैसे- "काजोलवेल्जितहषत्परुषप्रहारै- रत्नान्यमूनि मकरालय भावमस्याः । कि कौस्तुभे न विहितो भवतो न नाम यांचाप्रसारितकरः पुरुषोत्तमोऽपि ॥ -७, २७६ अर्थात् रत्नाकर, लहरों को चला-चला के कठोर पत्थरों पर प्रहार कर तुम इन रत्नों का ( जो तुम में भरे हुए हैं ) अनादर मत करो, क्योंकि ( इन रत्नों में की ) एक ही कौस्तुभ मणि ने, जिसे मांगने के लिये भगवान् विष्णु ने मी तुम्हारे सामने हाथ पसारा, संसार में तुम्हारी प्रसिद्धि नहीं कर दी ?" अब इसके साथ दासजी मान्य 'विशेष प्रवृत्त' का दोहा-"कहा सिंधु लोपत मॅनिन०". 'पड़िए, रहस्य खुल जायगा।" अथ साकांछा-दोष-लच्छन जथा- आकांछा कछ सब्द की, जहाँ परत है जॉन । सो दूषन 'साकांछ' है, सुमति कहें उर-ऑन ॥* अस्य उदाहरन- परम बिरागी चित्त है, पुंनि देबन को काम । जननी-रुचि पुनि पितु-बचॅन, क्यों तजि हैं बन रॉम - श्रस्य तिलक इहा-"कशें तजि है बन रॉम" के स्थान पै "क्यों न जाँइ बँन रोम" होनों चहिऐ, बन को जाइबे सब्द की आकांछा इहाँ प्रघट है।" अथ अजुक्त पद-दोष-लच्छन जथा- पद के बिधि, अनुवाद के, जहँ अजोग है जाइ । तहँ 'अजुक्त' दूषन कहें, जे प्रवीन कविराइ ॥ .. . पाo:-१. (का०) (३०)(प्र०) (का० प्र०) निज००, २. (का०) (३०) (प्र०) है..."
- काव्य-प्रभाकर (भा०) ५०--६४६ ।