६५८ काव्य-निर्णय "कहा मॅनिन-मूदत जलधि, बीची कोच मचाह । सक्यौ कौस्तुभ जोर तू, हरि सों हाथ बुझाइ ॥" अथ सामान्य प्रवृत्त लच्छन जथा- जहाँ कहत 'सामान्य'हो, थल-बिसेस को देख । सो 'साँमान्यप्रवृत्त' है, दूपॅन दृढ़ अबरेख ॥ अस्य उदाहरन जथा- रेंन स्याँम-रॅग-पूरि, ससि-चूरि' कॅमल करि दुरि । जहाँ-तहाँ हों पिय लखों, ए भ्रम-दाइक भूरि॥ अस्य तिलक रात्रि स्याँम है, ससि हू सुफेद है, फिर इन्हें भ्रम-दाइक (भ्रम उत्पन्न करने वाले) कहनों 'सामान्य-प्रवृत्त' कथन दोष है। वि०-'जहाँ अर्थ के लिये सामान्य शब्दों का प्रयोग करना चाहिये, पर ऐसा न कर वहाँ विशेष शब्दों का प्रयोग किया जाय जाने पर यह अर्थ दोष होता है । संस्कृत-साहित्य में इसे "अविशेष परिवृत्ति दोप भी कहते हैं।" दासजी के 'विशेष' और 'सामान्य परिवृत्तता' के दोनों उदाहरण "संस्कृत- काव्य-प्रकाश" की संपत्ति हैं और वे वहाँ क्रम विपर्यय से-विशेष का उदाहरण सामान्य में-अविशेष में तथा सामान्य का उदाहरण 'विशेष परिवृत्ति' में दिया गया है। मूल उदाहरण इस प्रकार हैं- अस्तु, प्रथम विशेष परिवृत्ति ( जहाँ किसी विशेष वस्तु का उल्लेख न किया जाय, पर जिसका नामोल्लेख उचित है- जिस अर्थ के लिये विशेष शब्द अभिप्रेत है, वहाँ सामान्य शब्द का प्रयोग करना ) उदाहरण, यथा- "श्यामां श्यामलिमानमानयत भोः सांद्रमपीकूर्चकैः- मंत्र तंत्रमथ प्रयुज्य हरत श्वतोपतानां भियम् । चंद्र चूर्णयत सणाच कणश. कृत्वा शिलापट्टके- येन द्रष्टुमहं चमे दरादिशस्तद्द्वक्त्रमुद्रांकिताः ॥ ५, २७५ अर्थात् सेवको, चटकीली स्याही की कूची से पोतकर रात्रि को अति अँधेरी कर दो, मंत्र-तंत्रादि का प्रयोग कर श्वेत कमलों की शोभा भी हरलो और उसके बाद किसी कड़ी चट्टान पर चंद्र को भी पटक कर चूर-चूर कर डालो, जिससे मैं अपनी प्रिया के मुख-चिह्नों से विभूषित दसों दिशाओं को देख सकूँ।" पा०-१. (प्र०) चोर कमल करि दौर । २. (प्र०) भौर... : : :.
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