३४ काव्य-निर्णय इन दसों के संस्कृत साहित्य-सृजेताओं ने-वाच्य-संभवा, लक्ष्य-संभवा और व्यंग्य-संभवा भेद और माने हैं। दासजी ने उपयुक्त भेदों को मानते हुए ग्यारहवाँ भेद "मिश्रित" और माना है, पर उल्लेख (उदाहरण) दसों का ही किया है । जैसे- (१) अथ ब्यक्ति बिसेस को उदाहरन 'दोहा' जथा- अति भारी जल-कुंभ लै, आई सदँन उताल । लखि संम-सलिल-उसास अलि, कहा बूझती हाल - अस्य तिलक इहाँ वक्ता नायिका है, सो अपनी क्रिया छिपाबति है, सो ब्यंग सों (ते) जान्यों जाति है। वि०-दासजी का यह दोहा परकीया के अंतर्गत 'वर्तमान-गुमा' नायिका की उक्ति है-कथन है। अवस्थानुसार परकीया-वर्तमान-गुप्ता उसे कहते हैं, "जो पर-पुरुष-प्रेम-विषयक उपस्थित घटना-रति-चिन्हों को छिपाने की चेष्टा करे। यथा-- "जब तिय सुरति छिपाव ही, करि बिदग्धता बाँम । भूत, भविष, व्रतमाँन सो, 'गुप्ता' ताको नाम ॥" ___ --, नि० (भिखारी दास) पृ० ३५ और "वर्तमान-गुप्ता" नायिका, यथा- "करत सुरति-परतच्छ जो सब सों डारत गोह। ___ 'बर्तमॉन गुप्ता' सोई, अति प्रबीन तिय होई ॥" वर्तमानगुप्ता का उदाहरण महाकवि 'ग्वाल जी' का बड़ा सुदर है, यथा- "छुष्टि जाइ गैया कै बिलया चाट-चाट जाइ, फोंन दुःख-दैया दैया सोच उर-धारयो में। हों ही जमवैया भौधरैया निज-सैया-तरें, कहीं जो कहैया हास होइगौ विचारयो में ॥ 'ग्वाल कवि' हौलें को प्रबैया निरवैया यही, भाज या संमैया मोट पैयाँ-गहि पारयो में । .
- , का०प्र० [भानु] पृ० ७६ | व्यं० मं० [ल१० भ०] पृ० २० ।