पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६८८

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काव्य-निर्णय ६५३ और वाक्य-गत दोप, शब्द-दोषों में समाजाते हैं, कारण-वाक्यार्थ का बोध होने पर जो दोष दिखलाई पड़ते हैं, वे शब्द के आश्रित हैं, इत्यादि। ब्रजभाषा-साहित्य में भी दोषों में उलटफेर हुए, पर वे अधिक उल्लेखनीय नहीं हैं । क्योंकि वे संस्कृत-जन्य दोषो के विकृत-अविकृत रूप हैं और कुछ नहीं। __उपरोक्त विवरण दोपों के श्राविर्भाव और विकास काल का संक्षिप्त इति- हास है, जो समयानुसार वृद्धि और हास के झोकों में पनपता तथा मलिन होता रहा । अस्तु, दासजी इस विवाद में नहीं पड़े। उन्होंने मम्मट मान्य दोषों का एक समूह और परस्कृत मार्ग अपनाया और तदनुकूल 'शब्दार्थ- दोषो का आकलन किया।" प्रथम अपुष्टार्थ दोष लच्छन-उदाहरन जथा- प्रौद-उक्ति जहँ अर्थ' है, 'अपुष्टार्थ' सो बंक । "उयौ अति' बड़े गगँन में, उज्जल चारु मयंक ॥". अस्य तिलक गगन अति बड़ी है ही भौ चंद्रमा हूँ उज्जल औ चारु ( सुदर ) होइ है, ताते गगन को भति बदौ औ चंद को चारु कहियो ब्यर्थ है। अथ कष्टार्थ दोष लच्छन-उदाहरन जथा- अर्थ भिन्न अच्छरँन ते, 'कष्टारथ' सु बिचारि । "तो पर बारों चार मृग, चार बिहँग, फल चारि ॥ अस्य-तिलक इहाँ "तो पर बारों चार मृग" में मृग ते "पसुन" को अर्थ, जैसे- नेनन पै मृग, घूघट पे हय (घोदा), गति वै हाथी, कटि पे सिंघ यों चारि मृग वारे । याही भाँति चार विहंग, जैसे-बेन पै कोकिल, प्रोवा पै कपोत (कबूतर), केस पै मोर भी नासिका पै सुक (तोता) आदि पंछी वारे। चारि फल, जैसे- दाँतन पैदादिम (अनार), कुचन 4 श्रीफल (नारियल), अधरन बिबाफल और कपोलँन पै मधूम (महुमा-वृत विशेष का फूल) ए वारे। ए सब अर्थ. कप सों-ही जाने जात है, ताते मै कष्टार्थ दोष है। पा-१. (सं० पु० प्र०) प्याज"। २. (प्र०), बहुत बड़े गगैन में"। (२०) उग्यो अति बदौ"। (का०)(३०) उग्यो बड़ी अति गगन में"। ३. (का० प्र०) अर्थ व बाकी समझिए, सो कष्टार्थ विचारि । ४.(का० प्र०) सु" काव्य-प्रभाकर (भा०) ५०-६४५ ।