६५२ काव्य-निर्णय नियम-परिवृत्त, अनियम-परिवृत्त, विशेष-परिवृत्त, सामान्य-परिवृत्त, साफांदय, अयुक्त, विधि-अयुक्त, अनुवाद-अयुक्त प्रसिद्धि-विरुद्ध, प्रकाशित-विरुद्ध, सहचर- भिन्न, अश्लील और त्युक्त पुनः स्वीकृत । संस्कृत में दोषों का प्रथम उद्घाटन जैसा इस उल्लास के श्रादि में लिखा जा चुका है, श्रीभरतमुनि ने किया था, उन्होंने दोषों का वर्गीकरण तो नहीं किया, पर लक्षण-सहित उनकी संख्या-"गूढार्थ, अर्थातर, अर्थहीन, भिन्नार्थ, एकार्थ, अभिलुप्तार्थ, न्यायायत, विषम, विसंधि और शब्द-होनादि, दस रूप में अवश्य मानी हैं। इन्हीं में से अधिक दोष अर्थ-दोषों के उदभावक हैं । आपके बाद "ममट" ने इन दस दोषों को कुछ अधिक विकसित करते हुए वर्गीकरण के साथ, जैसे- "सामान्य-दोप"-"नेयार्थ, क्लिष्ट, अन्यार्थ, अवाचक, अयुक्तिमत्, गूढशब्द","वाणी-दोष"-"श्रुतिदुष्ट, अर्थदुष्ट, कल्पनादुष्ट, श्रुति-कष्ट", "अन्य दोष"-अपार्थ, व्यर्थ, एकार्थ, ससंशय, अपक्रम, शन्द-होन, यति-भ्रष्ट, भिनवृत्त, विसंधि, देशकालकलालोकन्यायागम-विरोधी और प्रतिज्ञाहेत दृष्टांतहीन"। इस त्रिवर्ग में सामान्य और वाणी-दोषों का उद्गम तो अज्ञात है, पर अन्य दोपांतर्गत विविध दोपों का मूल विशेषतः भरत जन्य हैं। अब दोषों की संख्या-इक्कीस (२१) हो गयी। दंडी ने इन दोपों को काट-छाँटकर, अर्थात् भामह-जन्य सामान्य और वाणी-दोषों के साथ अन्य दोषांतर्गत एक "प्रतिज्ञा- हेतु-दृष्टांतहीन" को त्याग कर सब के सब यथावत् अपना लिये। फतरूप भामह- कृत इन जातियों को त्यागते हुए भी दोप-संख्या वही भरत-जन्यवत् दस हो गयी। प्राचार्य वामन के समय इनमें फिर वृद्धि हुई और वर्गीकरण भी हुश्रा । आपने दोषों को-पद, पदार्थ, वाक्य और वाक्यार्थ-रूप जाति में विभक्त कर पांच पद- दोप'-"असाधु, कष्टकर, ग्राम्य, अप्रतीत, अनर्थक", पाँच ‘पदार्थ-दोष'-- "अन्यार्थ, नेयार्थ, गूढार्थ, अश्लील, लिष्ट', तीन 'वाक्य-दोष'-भिन्नवृत्ति, यतिभ्रष्ट, विसंधि और सात 'वाक्यार्थ-दोप'--"व्यर्थ, एकार्थ, सदिग्ध, अप्र- युक्त, अपक्रम, अलोक, विद्या-विरुद्धादि" में परणित कर संख्या पुनः “बीस" (२०) प्रस्तुत कर दी। यही दोप-संख्या श्रागे चलकर मम्मट-काल में-शब्द, अर्थ और रसादि त्रिवर्ग से विभूषित हो सत्तर (७०) हो गयी, यथा-शन्द- दोष-"सेंतीस", अर्थ-दोष-'तेईस' और रस-दोष-दस । विश्वनाथ चक्र- वती ने इन त्रिवर्ग-जन्य दोषों को पांच-“पदे तदंशेवाक्यऽर्थे संभवंति रसेऽ- पियत्" ( पद, पदांश, वाक्य, अर्य और रस ) विभागों में विभक्त किया और संख्या-चौसठ (६४), जैसे-पद-दोष-पंद्रह', वाक्य-दोष-'तेईस', अर्थ- दोष-'सोलह' और रस दोष-'दस' । इन पंचभूत दोषों में पद, पदांश
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