६५० .काव्य-निर्णय अस्य उदाहरन साधु-संग भौ हरि-भजन, विष'-तरु ये संसार। सकल भाँति बिष सों भरयौ, द्वैभमृत-फल पारु॥ अस्य तिलक इहाँ पैदोहा या प्रकार होंनों चहिय तो-"सकल भौति दुख सों भरयौ, विष-तरु यै संसारु । साधु-संग भी हरि-भजैन, है अमृत फल चारु ॥" पै ऐसौन अथ अमतपरार्थ-पद-दोष लच्छन जथा- औरें रस में राखिऐ, ओरें रस की बात । 'मतपरारथ' कहत हैं, लखि कबि-मत को घात ॥ अस्य उदाहरन "रॉम-कॉम-सायक लगें, विकल भई अकुलाइ। क्यों न सर्दैन पर-पुरष के, तुरत तारिका जाइ ॥" अस्य तिलक इहाँ जैसौ रूपक सिंगार-रस में कहिनों उचित हो, सांत-रस में ना हीं । अथ प्रकरन-भंग-दोष लच्छन-उदाहरन जथा- सौ है 'प्रकरन'-भंग' जहँ, विधि-समेत नहिं बात । “जहाँ रन जागे सकल, ताही पै किन जात ।।" अस्य तिलक इहा-"जा निसि जागे सकल, ताही....." ऐसौ कहिनों उचित हो, पै ऐसौ न कहनों प्रकरनभंग दोष है। अथ दुतीय प्रकरॅन-भंग लन्छन-उदाहरन जथा- जथासंख्य जहँ नहिं मिले, सोऊ प्रकरन-भंग'। "रमों, उमाँ, बाँनी सदाँ, विधि, हरि, हर के संग ॥". अस्य तिलक इहाँ "रमा, उमा, बाँनी" की भौति "हरि, हर, विधि के संग" न कहि बिना क्रम के विधि, हरि, हर०' को, सो दोष-जुक्त है। पा०-१. (स० पु० प्र०), दे हि अमृत फल चारु । २. (सं० पु० प्र०) विषतरु में संसार । ३. (का०)(प्र०) सो है...।
- काव्य-प्रभाकर (भा०) पृ०-६४५ ।