काव्य-निर्णय ६४५ वि.-"काव्य-प्रकाश और साहित्य-दर्पण के अनुसार “हतवृत्त"- जो छंद, लक्षण के अनुसार होने पर भी सुनने में उचित न लगे, जो रस के अनु- कूल न हो या जिसके अंत्यानुप्रास में ऐसा लघु हो बो गुरुता न ला सके इत्यादि तीन प्रकार का माना गया है। दासजी ने छंदो-भंग और अमिल-पद (क्रमभंग ) रूप से दो प्रकार का ही माना है।" अथ विसंधि वाक्य-दोष लच्छन-उदाहरन- सो 'बिसंधि' निज रुचि धरें, संधि-बिगारि-सँवारि । "मुर-परि-जस उज्जल अँने, स्याँम' महा-तरवारि॥". अस्य तिलक इहाँ मुरारि को बिगारि के-'मुर-भरि' कहि के भो तरवारि को सँवारि (सुधारि ) कें, 'मुर-अरि' की भांति "तर-बारि" न कहयौ ताते 'बिसंधि' के 'बिगारि-सँवारि-रूप ते कै-भौति को ये दोष भयो। वि०-"विसंधि-दोष में-"इच्छानुसार संधि को बिगाड़ना-सँवारना अथवा संधि के बीच कुपद का लाया जाना" कहा जाता है । काव्य-प्रकाशकार का लक्षण है-"विसंधि सधेरूप्यं, विश्लेषोऽश्लीलत्वं कष्टत्वं च" ( जहाँ संधि में वैरूप्य-अशोभनीयरूपा असंधि, अश्लीलता और उच्चारण का कष्ट हो वहाँ विसंधि-दोष )। अस्तु, अश्लीलता-युक्त विसंधि और कष्ट-कर-संधि ये दो प्रकार के भेद विसंधि के और होते हैं।" पुनः विसंधि-उदाहरन जथा- पुनि' 'बिसंधि' द्वै3 सब्द के बीच कुपद परिजाइ । “पीतम जू तिय लीजिए, भली-भाँति उर-लाइन अस्य तिलक इहाँ "पीतम जू तिय लीजिएं" में पीतम जूतिय (जूना) लीजिऐ हू पदिवे में भाबै, ताते विसंधि दोष है । जूनी शब्द अस्लील पर जात है। अथ न्यून-पद वाक्य-दोष लच्छन-उदाहरन जथा- सब्द रहें कछु कहन कों, वहे 'न्यून-पद' मूल । "राज तिहारे खरग ते, प्रघट भयो जस-फूल ॥"* पा०-१. (का०) (१०) (स०पु०प्र०) (का०प्र०) तेरी स्याम तरवारि । २. (का०) (३०) यहो...। ३. (का०) (०) दु...। ४. (प्र०) सु है"। ५. (का०प्र०) तिहारी...!
- t,t काव्य-प्रभाकर (भा०) पृ०-६४४ ।