६४४ काव्य-निर्णय बाद 'अक्रम' (जिस शब्द का जिस शब्द के बाद क्रमशः उचित रूप में न होना) श्रादि का अधिक उल्लेख है। दासजी ने भी इन संस्कृत-जन्य दोषों में दो 'चरण-गत' और 'अकथित-कथनीय' दोषों को अधिक सृष्टि की है। इन दोषों में-'चरणांत तो चिंतामणि (ब्रजभाषा-अाचार्य) की देन है, द्वितीय "श्रक- थित-कथनीय" का बहुत कुछ खोजने पर भी पता नहीं चला कि उसे श्राप से पूर्व और किसने कहा ।" अथ प्रतिकूलाच्छर-दोष लच्छन-उदाहरन जथा- अच्छर नहिं रस'-जोग सो-'प्रतिकूलाच्छर' ठट्टि । "पिय तियलुट्टत है सुरस, ठट्टि लपट्टि झपट्टि ॥". अस्य तिलक इहाँ 'ठष्टि, लुत, लपट्टि और झपट्टि सबद जो रुद्र (रौद्र) रस में भोंने चाहिएं, वे सिंगार-रस में धरे, सो प्रतिकूल हैबे ते प्रतिकूलाच्छर दोष भयो । वि०-"प्रतिकूलाक्षर दोष का लक्षण-संस्कृत में अभीष्ट-रस के प्रतिकूल वर्णगत रचना को कहा गया है। साथ ही वहाँ–रसानुकुल और पदानुकुल अक्षरों का प्रयोग न होना भी कहा है।" अथ हतबृत्त बाक्य दोष लच्छन-उदाहरन जथा- ताहि कहत 'हतवृत्त' जहँ, छंदोभंग सबर्न । “लाल-कॅमल जीत्यौ सु वृष, भानु-लली के चर्न ॥ अस्य तिलक इहाँ दुतीय चरन में वृष और भान को प्रथक-प्रथक करि कहयो, 'वृषभान' एक रूप में नाहिं कहयो, “ताते हतवृत्त-पद दोष है। पुनः हतवृत्त को उदाहरन- यही कहत 'हतवृत्त' जह, नाहिं सुमिल-पद-रीति । "दृग-खंजन, जंघनि-कदलि, रन मुक्त लिय जोति॥": अस्य तिलक इहां ग के संग जंघा कहीं, रदन (दाँत) नाही कयौ, जो क्रम ते उचित हों, वाते इहाँ-हूँ 'हतवृत्त' दोष है। पा०-1(का०) (२०) (प्र०) पद"। २. (का०) (३०) (३०)(का० प्र०) लपट्टि । ३. (का०)(३०)(प्र०) (का० प्र०) सुबर्न । ४. (सं०पु०प्र०) मन खज"। काव्य-प्रभाकर (मा०) १०-४।
पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६७९
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।