६४१ काव्य-निर्णय अस्य विलक इहाँ सूर्षे 'गंगा-जब-समान (निर्मल ) तेरे न" न कहि विष-रीत सों कहयो, ताते क्लिष्ट-दोष है। वि०-"ऐसे शब्दों का प्रयोग जिनका अर्थ-ज्ञान कठिनता से हो-सीढ़ी- सीढ़ी चढ़ने की गति से होता हो, उसे 'क्लिष्टत्व' दोष कहा जाता है। यहाँ "खग (पक्षी), उसका पति (गरुड़), उसका भी पति ( भगवान् विष्णु), उनकी त्रिया (स्त्री लक्ष्मी ), उसका पिता ( समुद्र ), उसकी बधू (गंगा )-आदि अर्थ सीढ़ी-सीढ़ी चढ़ने की-ही भाँति ज्ञात होता है।" पुनः उदाहरन जथा- बरुन-हाथ कतिचे लिऐं', किऐं सपाल-हि साथ । आदि स-अंतर-मध्य हित, होंहि तिहारे नाथ ।। अस्य तिलक इहाँ-ब्रह्मा, रुखो नराईन कॅमल, तिरसूल नौ चक्र लिऐं सुरसती, पारवती भौ लच्छिमी के संग तुम्हारे हितकारी होंइ, ये क्लिष्टार्थ-दोष है। कठिन- ताते जानों जाइ है। मथ अविमृष्टविधेइ लच्छन-उदाहरन जथा-- है 'भविमृष्टविधेई' पद-छा प्रघट विधान । "क्यों मख-हरि लखि चख-मृगी, रहि है मॅन में मॉन ॥" अस्य तिलक It "मुख-हरि" नौ बख-मृगो भविमृष्ट-विधेय है, इन को अर्थ कति. मता सों जानों बात है। वि०-"वहाँ विधेय-अभीष्टार्थ के अंश की प्रधानता का प्रतीत न होना- उसे गौण रूप से जानना "अविमृष्टविधेय' या 'अविमृष्टविधेयांश' दोष बनाता है। यह एद्ध और समास-गत भी होता है। ऊपर के उदाहरण में-"चख रूप मृगियों द्वारा हरि-मुख देखने पर मन में मान कैसे रह सकता है ? अर्थात् नहीं रह सकता, इस अभीष्टार्य की प्रधानता है।" पा०-१. बस्ना हाथ कतीच ले, सपाल लीन्हें साप । (३०) वरुना हाथ कती चले, सपाल लोहें... (40) नाग कति सिले,"(सं० पु०प्र०)रुमा हापक ती पले, सपला ला "२. (O) (०) (०) अदिस अंतर"। .. (का०) (३०) (५०) तिहारी"1. (०)() (०) बोई...1 ५. (६०) मन...।
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