पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६७३

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काव्य-निर्णय अथ ग्राम्य-सब्द दोष-लन्छन-उदाहरन जथा- केवल लोग'-प्रसिद्ध कों, 'माम्य' कहें कविराइ । "क्या झल्ले, टुक गल्ल-सुनि, भल्लर-भल्लर भाइ॥". अस्य तिलक इहाँ-क्या, झल्ले, टुक, गल्ल, भल्लर-भल्लर भौ भाइ सबद एक जात के लोगँन में ही प्रसिद्ध है, काव्य में नाहीं ताते 'ग्राम्य-दोष है। अथ संदिग्ध सब्द-दोष लच्छन-उदाहरन जथा- नाम धरौ संदिग्ध-पद, सब्द स देहिल जासु । "बंद्या तेरी लच्छमी, कर बंदना तासु ॥" अस्य तिलक इहाँ-बंचा बंदी पौ बाँनी (वाणी) दोंनोंन को कहें हैं, लच्छमी की बंदना कहिनों उचित, पैबंदनीया छोड़ बंद्या कहिबे ते 'संदिग्ध-दोष' है। वि०-"जहाँ ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाय जिससे वांछित और अवां- छित दोनों अर्थ निकलते हों, वहां संदिग्ध-दोष माना गया है । यहाँ 'वंद्या' शब्द दोनों वांछितावांछित अर्थ-बंदनी ( कैद की हुई, पकड़ी हुई ) और वंदनीय ( वंदना करने योग्य ) में प्रयुक्त है, इसलिये उपयुक्त दोष है।" इस संदिग्ध-दोष-प्रयुक्त 'वंद्या' शब्द को दासजी ने "काव्य-प्रकाश" (संस्कृत) के उक्त उदाहरण में से अपनाया है, यथा- ___ "प्रालिंगितस्तत्र भवानसंपराये जयश्रिया। पाशी परंपरां "वंद्या" कर्णे कृत्वा कृपां कुरु ॥" ७,१५४ "अत्र वंद्यां किं हठहतमहिलायां किंवा नमस्यामिति संदेहः" अर्थात् यह वंद्या शब्द "बलात्कार से छीन ली गयी महिला" और "प्रणय-योग्य स्त्री" दोनो अर्थ दे रहा है, कोन-सा ग्रहणीय यह संदिग्ध है। इसलिये उक्त दोष है।" अथ अप्रतीत-सब्द दोष लच्छन-उदाहरन जथा- एकै ठौर जु कहि सुन्यों, अप्रतीत सो गाउ। "रे सठ, कारे चोर के, परनॅनसों चित लाउ॥" पा०-१. (का०) (३०) (प्र०) (का० प्र०) लोक

  • काव्य-प्रमाकर (भा०) ५०-६४३ । '