६३५ काव्य-निर्णय अथ अँनुचितारथ सब्द-दोष लच्छन-उदाहरन- 'अनचितार्थ कहिए जहाँ, उचित न सब्द अकाल । "नौगों है दह-कूदि के, गहि लायौ हरि ब्याल ॥". पुनः उदाहरन "जिहिं जाबक अँखियाँ-गे, दई नखच्छत गात । "रे पिय सठ, क्यों हठ करे, वाही किन जात ॥" अस्य तिलक उपर ले दोहा में नाँगों सबद दुष्ट (अनुचितार्थो ) है, दूसरे दोहा में रेंगे भौ दई जो रंगी भी दए कहिवौ चाहिऐ न कहि अनुचित सबद कहे, भौर पिय के समास ते सठ सबद हू दुष्ट है ताते प्रथम में (राव) अनुचितारथ प्रथम भौ दूसरे में मात्रा-अनुचितारथ दूसरे भेद वारी अनुचितारथ दोष है। अथ निररथक सब्द दोष-लच्छन उदाहरन- छदै पूरन करन कों', सब्द 'निररथक' धोर । "परी हुनत दृग-तीर सों, तोहि परी'रन ईर ॥". अस्य तिलक इहाँ 'ईर' सबद निरर्थक तुक मिलाइबें को प्रयोग कियो, ताते 'निरर्थक' सबद दोष भवौ। अथ अबाचक सब्द दोष-लच्छन जथा- वह 'भवाचक' रीति-वजि, लेइ नॉम हराइ । कहयौ न काहू जाँनिऐं', नहिं माने कविराइ ।।. अस्य उदाहरन प्रघट भयो लखि विषम हय, बिस्नु धाम सानंदि । सहसपान निद्रा तज्यो, खुल्यौ' पीत मुख बंदि ।।* अस्य तिलक इहो सूरज को 'विषम-हय', (संस्कृत - सप्ताश्व ), प्रकास को 'विस्नु- पा०-१. (का०)()(प्र०) (का०प्र०) दहि पूरन कों पर...। २. (का० ) (३०) (प्र०) ई रैन । (का० प्र०) (सं०पु०प्र०) तो हिय ईर न पीर । ३. (का०) (३०)(प्र.) (का०प्र०) जानि यह,...१४. (३०) खुली पीक मुख...। (का०प्र०) खुली पीत" (०पु.. प्र०) खुली पीत मुख चदि । • काव्य-प्रभाकर (भा०) १०-३४१ ।
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