पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६६५

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६३. काव्य-निर्णय है। आपकी दोष-संख्या ४४ चुवालीस है। तोष ने 'सुधानिधि' में केवल रस दोष कहे हैं। महाकवि भूषण ने दोषों पर एक पृथक् रूप से-'दूषणो- ल्लास' पुस्तक लिखी, वह अप्राप्य है, इसलिये दोषो के वर्गीकरण के साथ उनके प्रति आपके क्या विचार हैं, वह सब अज्ञात है। कुलपति मिश्र ने संस्कृत काव्य-प्रकाश के आधार पर-“शन्द, अर्थ, छंद और रस-गत चार प्रकार के दोष माने हैं। अापके बाद सूरति मिश्र कृत दोष-वर्णन मिलता है । उनमें विशेष संस्कृत जन्य, कुछ प्राचार्य केशव से उधार लिये हुए और वाकी के आप-द्वारा नये निर्माण किये हुए हैं। तैलंग कुमारमणि भट्ट ने भी 'रसिक- रसाल' के अंतिम अध्याय में गुणों के साथ दोपों का वर्णन किया है । वहाँ कोई नव सृष्टि नहीं, वही संस्कृत की आधारभूत पुरानी पटली पर घिसो-पिटी चाल दृष्टिगोचर होती है। काव्य-सरोज-रचयिता श्रीपति जी दोष व्याख्या इस प्रकार करते हैं- "जा पदार्थ के दोष ते, भाछे कबित नसाइ । दून तासों कहत हैं, श्रीपति पंडित राह॥" अतएव अापने शब्दार्य रूप दो (शब्द-अर्थ-गत ) प्रकार के दोषों का वर्णन करते हुए उनमें कुछ नये और अधिक वही पुराने दोषों को कहा है। यहां एक बात में आपकी अधिक विशेषता है -दोषों के उदाहरणों में आपने सभी ब्रजभाषा के प्रसिद्ध-प्रसिद्ध कवियों के छंद दिये हैं। सोमनाथजी ने भी 'रस- पीयूष' की वीसवीं तरंग में विशेषता-रहित वही पुरानी संस्कृत-शैली पर दोषों का उल्लेख किया है। आपके वाद रत्न कवि ने 'फतह-भूषण' में, जनराज ने 'कविता-रस-विनोद में, उजियारे ने 'रस-चंद्रिका' में, जगतसिंह ने 'साहित्य-सुधा- निधि' में, रणधीरसिंह ने 'काव्य-रत्नाकर' में, रसिक गोविंद ने 'रसिक-गोविंदा. नंदघन' में, रामदास ने 'कवि-कल्पद्र म' में और लच्छीराम ने 'रावणेश्वर कल्प- तरु में दोषों का वर्णन किया है। इनमें भी कुछ नवीनता नहीं, सब उसी पुरानी लकीर के फकीर रहे हैं।" अथ प्रथम सब्द-दोष बरनन जथा- सुतिकटु, भाषा-हीन, अप्रजुको, असमर्थ हि । वजि मिहितार्थ, अनुचितार्थ, पुनि तमौ निरर्थ-हि॥ पा०-१. (रा०पु०प्र०) असमरयक । २. (रा०पु०प्र०) निररयक । .