अथ तेईसवाँ उल्लास अथ दोष-बरनन जथा- 'दोष' सबद औ बाक-हू, अर्थ-रसौ में होह। तिहिँ तजि कबिताई करें, सज्जन मुमति जु कोइ । वि०--दासजी ने इस उल्लास में --"शब्द, वाक्य, अर्थ और रस"-रूप चार-प्रकार के दोषों का उल्लेख करते हुए भी यहाँ शब्द, वाक्य और अर्थ-गत तीन भाँति के दोषो का ही वर्णन किया है । रस-दोष श्रागे के पच्चीसवें उल्लास में कहे हैं। इन शब्द, वाक्य और अर्थ-गत दोषों के भेदाभेद भी अापने यहाँ वर्णन किये हैं। यह दोप-विवरण दासजी ने संस्कृत-साहित्य से ही अपनाया है-पद-पद पर उसकी छाप है। संस्कृत-प्रथों में यह दोष-चरचा उन (काव्य-ग्रथों) के प्रारंभ में ही मिलती है। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि वेदों में भी दुरित-दलन की--उसके परिहार की श्राकांक्षा प्रथम और भद्र की विभूति बाद में बिखराई गयी है। वास्तव में काव्य का प्रथम रमरणीय सोपान दोष-परिहार-ही है। अस्तु प्राचार्य दंडी (ईसा की सप्तम शताब्दी) ने अपने 'काव्यादर्श'-अथ में काव्य-गत रंच-मात्र दोष होने की भी भरनों की है। साथ-हो काव्यनिर्दोष को वा निर्दोषकाव्य को-उसके रचने को एक महान गुण माना है- "महान्निर्दोषता गुणः" । संस्कृत-काव्य-अथ के आदि श्राचार्य श्री भरत मुनि, जो पुराणकार श्री वेदव्यास से भी पूर्व के माने जाते हैं, अपने नाट्य-शास्त्र में दोष-लक्षण तो नहीं, पर उनकी स्थिति भावात्मक बतलाते हुए साहित्य-गुणों का विपर्यय अवश्य कहा है, यथा-"विपर्यस्ता- ___ गुणाः काम्येषु कीर्तिताः । (भ० ना० सा०-७,६५)। अस्तु उक्त विषय की अब व्याख्या यहाँ असंगत है। भामह (ई. छठवीं शताब्दी) ने दोष- चर्चा में-“सामान्य और वाणी दोषों के साथ उनके गुणत्व-साधन का उल्लेख भी किया है, पर उनके लक्षण निर्माण नहीं किये । आपने भी--"कवयो न प्रयुजंते" कह कर ही दोष-विषय की समाप्ति कर दी है। जैसा पूर्व में कह पाये है, प्राचार्य दंडी ने दोषों की परिभाषा तो नहीं लिखी, पर उनका वर्णन विशद पा०-१. (का०) (३०) (प्र०) .."। २. (का०) (३०) जो होइ । (५०) . सज्जन समती जोइ ।
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