पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६५०

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६१ काव्य-निर्णय वि०-यह दोहा-छंद के अक्षरानुसार चौंसठ (६४) कोठों (घरों ) में एक-एक अक्षर लिखने से और किसी कोष्ठक गत अक्षर से प्रारंभ कर पढ़ें, उपयुक्त दोहा बन जायगा, अर्थात् पढ़ने में पायगा।" अथ कामधेनु-बंध चित्रालंकार लच्छन- गहि, तजि प्रति कोठुन बढ़ें, उपजे छंद अपार । ब्यस्त-समस्त, गतागतो, कामधेनु-बिस्तार ।। अस्य उदाहरन 'दास' चहे नहिं और सों यों, सब गूढ़ ए हैं जन जॉन र सति । भास गहे यहि ठौर सों ज्यों, नब रुढ़ एसै तन प्रॉन डर अति ।। बास दहै गहिं दौर सों हयों, अब तूढ़ ए तै प्रन ठान धरै रति'। हास लहै वहिं तौर सों प्यों, तब मुढ़ ए मैं मन मान कर मति ।। चाहै नहिं | और | सों बों | सब | गूढ़ | एहै | जैन जॉन | रै सति | नब | रूढ़ | एसै | तन प्रान रम

. ..

ग .. भब | तूढ़ | एते | मन जॉन | धरै | रति खरे | वहिं | तौर | सों | प्यों | सब मूढ़ | एमैं | मॅन | माँन | करे | मति वि.-"यह कामधेनु-बद्ध चित्रालंकार दासजी कृत १३+४-५२ कोष्ठकों (घरों ) में विभक है। चित्र-गत कोष्ठकों में निहित अक्षरों को चाहे जिस कोष्ठक से-व्यस्त-समस्त रूप से, या गतागत क्रम से, जिस तरह इच्छा हो पढ़ो पूर्ण छंद बनता जायगा । इस प्रकार कोष्ठकानुसार इसके बावन (५२) छंद बनते हैं।" अथ चरन-गुप्त चित्रालंकार जथा- रो सखि, कहा कहों छवि गुन गन, मलिन बसायो कॉनन में। कॉनन-सजि पुंनि हघ्न बस्यौ ज्यों, प्रॉनी विरमें थानन में ॥ कॅम-कम 'दास' रहयौ मिलि मन सों,कदैन विविध विषानन में। सूटे ग्याँन समूहॅन को अब "भ्रमें बिहारी प्रॉनन में ॥" पा०-१. (३०) सति ।। २. (३०) सा"