पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६५

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३० काव्य-निर्णय अथ लच्छना-मूलक व्यंग 'दोहा' जथा- ब्यंग-लच्छना-मूल सो, प्रयोजनँन ते होई। होत 'रूढ़ि' 'अव्यंग' द्वै', ये जॉनत सब कोइ ।।. गूढ-अगूढ़-हु' ब्यंग द्वै, होत लच्छिना-मूल । छिप्यौ' गूढ, प्रघटयौ कहौ, है अगूढ सँम-तूल ॥+ वि०-"जहाँ लक्ष्यार्थ के द्वारा एक अर्थ निश्चित होते हुए भी कोई दूसरा अन्य विलक्षण अर्थ भी प्रकट होता हो, वहाँ यह लक्षणा कही जाती है और यह 'रूढि' तथा 'व्यंग्य' के कारण दो प्रकार को तदनंतर व्यंग्य भी- गूढ़ और अगूढ़ दो प्रकार का कहा जाता है । महाबीर प्रसाद मालवीय सपादित प्रति 'काव्य-निर्णय' में पूर्व के और इस दोहे में काफी उलट-फेर तथा पाठांतर है, यथा- "गूढ-मगूदौ ब्यंग है, होत लच्छिना मूल । छिपी गूढ प्रघट-हिं कहाँ, है अगूढ़ सम तूल ॥ कवि, सहृदै जा कहँ नखें, ब्यंग कहावत गूढ । जाकों सब कोई लखत, सो पुनि होइ निगूढ ॥" अथ गूढ़-व्यंग मूलक लच्छना उदाहरन 'सवैया' जथा- आँनन में मुसिक्यॉनि सुहावनी, बंकता नेनन-माँमि छई है। बेन खुले-मुकले उरझात, जकी बिथको गति ठोंन ठई है॥ 'दास' प्रभा उछिल सब अंग, सुरंग सुबासता फैलि गई है। चंदमुखी तन-पाइ नबीनों, भई तरुनाई अनंद मई है। अस्य तिलक जब या नायिका के पाइये ते तरुनाई को अनंद भयौ है, तो अब याह कोऊ पुरुष (नायक) पावैगौ तौ कितनों मनंद न होइगौ, अर्थात् 'प्रति अनंद होइगौ' ये व्यंग है। पा०-१. [३०] है । २. [का० प्र०] गूढ-अगूढी व्यंग...। ३. [भा० जी०] छिपी . । ४. [भा० जी०] प्रघटै। [३०] प्रघट-हिं...। ५. [भा० जी०] [३०] बंकुरता अँखियांन...| ६. [प्र०] [३०] [प्र०-२] [U० नि०], [र० कु०] उरजात...। ७. भा० जी०] तिय की...। म. [र० कु०] केलि-मई...। ___*, का० प्र० (भानु) पृ० ७६ | +, का० प्र० (भानु), पृ० ७७। 1, १० नि० मि. दा०) पृ० ४४ । र० कु० (भयो०) पृ० ६३ | ७० ना० मे० (मी०) पृ० २३१ ।