काव्य-निर्णय ६०५ हैं और वह तीनों चरण-गत अर्धाली ( तूलिका ) के साथ जुड़ा हुआ है । अस्तु, उसके पढ़ने का ढग अंकानुसार क्रमशः इस प्रकार है। प्रथम चरन डंडी के वाम पक्षी पहली लिका अंक १ से चलकर डंडी के दक्षिण भाग में स्थित अंतिम, अर्थात् तीसरो तूलिका (तिल्ली) पर समाप्त होगा। दूसरा चरण भी डंडी के वाम-भाग-स्थित दूसरी (अंक-२ से) तूलिका से प्रारंभ होकर डंडी के दक्षिण भाग वाली दूसरी ( अंतिम से पहलो) तूलिका पर समान होगा। इसी प्रकार तीसरा चरण-"तरुन....” वाम भाग की अंतिम (अंक-३) लिका से डंडी के दक्षिण भाग का प्रथम तूलिका पर समाप्त होगा। चौथा-चरण-"लखि भोरी०"... मध्य के चंद्राकार के अनुसार, पाँचवाँ चरण--"तँन सरस०"-प्रथम चंद्राकार (तनाव) के अनुसार और छठा चरण-"ते दास." डंडी के अग्रभाग से प्रारंभ कर उसके पकड़ने के स्थान तक क्रमशः अंक -१, २, ३, ४, ५, ६, के अनुसार पढ़ा जायगा। यहाँ भी यह ध्यान रखना चाहिये मध्यवर्ती कोष्ठक स्थित 'न' की भांति प्रत्येक तूलिका के अादि अक्षर-द, स, त और अर्ध भाग रूप उसके अंत अक्षर-र, र, त तथा उसके मध्य के तनाव (चंद्राकार) में स्थित तूलिकाओं के मिलन स्थान रूप-ल, री, र, भ, त, न, त, एवं बाहरी तनाब-स्थित तूलिका के आदि अक्षर-त, स, द, ते, त, र, र भी छंदगत शब्दों के आवागमन के प्रयोजक हैं।" अथ परखत-बध चित्रालंकार जथा- कैचित चै है कै तो परदे है, लली तुब' ब्याधिन सों पचिकै । नीरस काहे करै रस-बात में, देहि औ लेहि सदा सचिकै॥ नच्चत मोर, करें पिक सोर, बिराजतो भोर घनों मचिकै । कैचित है रबनी तँन तोहि, हितोन तँनी' बर है तचिकै॥ वि.-"यह पर्वत-बद्ध चित्रालंकार का शब्द-सौष्ठव है। इसे पढ़ते समय प्रथम अंक के नीचे वाले–१, २, ३ कोष्ठक, फिर ४ अंक के तीन कोष्ठक, फिर ५ अंक वाले पांच कोष्ठक, इसी प्रकार छह के सात, सात के नौ, आठ अंक के ग्यारह, नौ अंक के तेरह और दस (१०) अंक के पंद्रह कोष्ठक लिखित अक्षरों को क्रमशः पढ़ते अंत में अंक-११ से सीधे एक-एक कोष्ठक के अक्षर पड़ते हुए छंद के चारों चरण समाप्त करने चाहिये।" पा०-१. (वे) बैहै...। २. (३०) जिय...। ३. (स ० पु० प्र०) (३०) (प्र०) सुखै .., ४. (का०) नीबर है...।
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