पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६३३

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५६८ काव्य-निर्णय वि०-"इस चित्र के मध्य चतुष्कोण-स्थित 'र' से चारों दिशा में जाने, जैसे-१, रहै सदा, २-रच्छाहि में, ३-रमानाथ, ४-नधीर के उपरांत फिर ५ वें अंकानुसार संपूर्ण मंडल में पढ़ना चाहिए।" अथ दुतीय चंद-बंध चित्रालंकार जथा-- दँनुज - सदल मरदँन बिसद, जस हद करन दयाल । लहै सेन सुख हस्त बस, सुमिरत ही सब काल । अस्य उदाहरन IRE /नबि ४जस वि०-"ऊपर का चंद्र-बंध पंच (पाँच) दलात्मक, अर्थात् प्रथम अर्ध दोहे को चार दल बना द्वितीय अर्ध पूरा चंद्राकार (गोलाई) में पढ़ा जाने वाला था। यह (द्वितीय) सप्त ( सात) दलात्मक है । यहाँ भी मध्य-चतुष्कोण स्थित 'द' को दोहे के प्रथम अर्धभाग के पाँच दल, यथा-१, दनुजस, २. दल मर, ३. दन बिस, ४. द जसह, ५. द कन, ६. द याल के बाद सातवाँ दोहे का अर्ध भाग उल्टा वाम पक्ष से तीर के संकेतानुसार-“लहै सेन सुख हस्त बस, हुँ मरत ही सब काल" पढ़ना चाहिये। अथ चक्र-बंध चित्रालंकार जथा- परमेस्वरी परसिद्ध है, पसुनाथ की पतिनी प्रियौ । परचंड चॉप-चढाइ के, पर-सेन के पन में कियौ ।