पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६३

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२८ काव्य-निर्णय सूधौ अर्थ जु बचॅन कौ, तिहिं तजि और बेन । सममि परै तिहिं' कहति हैं, 'सक्ति-बिंजना-ऍन ॥. वि०-"बिंजन ( व्यंजन ), बिंजक ( व्यंजक ) व्यंग (व्यंग्य ) । व्यंजन (शब्द)-अपने-अपने अर्थ का बोध करा, 'अभिधा' और 'लक्षणा' के विरत (शांत ) हो जाने पर जिस शक्ति के द्वारा व्यग्यार्थ का बोध हो, यह 'व्यंजना' का स्पष्टार्थ है। व्यंजक-जिस शब्द का व्यंजना-शक्ति-द्वारा वाच्यार्थ तथा लक्ष्यार्थ से भिन्न अर्थ प्रतीत हो, उसे व्यंजक कहते हैं और व्यंग्य-वाच्य तथा लक्ष्यार्थ के अतिरिक्त एक तीसरे-ही प्रकार के, जिस अथ की व्यंजना-द्वारा प्रतीति हो, उसे कहते हैं, अर्थात्-वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ के अतिरिक्त जिस अद्भुत अर्थ का बोध हो उसे "व्यंग्यार्थ" एवं जिस शब्द से यह अर्थ प्राप्त हो उन्हें "व्यंजक' तथा जिस शक्ति के द्वारा व्यंग्याथ का ज्ञान हो, उसे "व्यंजना" कहते हैं और यह दो प्रकार की होती है-"शान्दी" और अर्थी"।" अथ अभिधामूलक ब्यंग बरनन 'दोहा' जथा- सबद - अनेकार)न - बल', होइ दूसरौ अर्थ । 'अभिधा-मूलक व्यंग' तिहि, भाँखत सुकवि समर्थ ॥t वि०-"जहाँ अनेकार्थ वाची शब्दों का अभिधा-द्वारा एक अर्थ निश्चित हो जाने पर भी कोई अन्य अद्भुत-अर्थ निकले, उसे 'अभिधामूलक व्यंग्य' कहा जायगा।" अस्य उदाहरन 'दोहा' जथा- भयो 'अपत' के 'कोप-जुत,' कै बौरौ इहि काल । मालिन माज को न क्यों, वा रसाल को हाल It वि०-दासजी के उक्त उदाहरण में 'अभिधा' से-रसाल (वृक्ष विशेष) का वर्णन निश्चित-सा है, किंतु-अपत, कोप-जुत, बौरी, मालिन और रसाल शब्दों के भिन्नार्थ होने से वचन-विदग्धा नायिका की उक्ति जैसा अर्थ भी प्रगट पा०-१. (भा० जी०) (वे. ) समझि परे ते...। २. ( का० प्र०) सबद भनेकारण- बल-हि...। ३. [३०] की...1

  • का० प्र० (भानु), पृ० ७६ । न्य० मं० [ला० भ०] पृ० १ -० लसौ.

(दि० दे०) पृ० ११। 1, का० प्र० (भानु), पृ० ७७।-० ल० सी०-(वि० दे०) १० १८५-२२८ 1 1, का० प्र० [भानु] पृ० ७७ । १०:ल० सौ० (दि० दे०) पृ० १८५, २२० ।