पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६२७

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५६२ काव्य-निर्णय काहे को घाइ गहे अघ-मोघ कों. काग' की कोक किएँ कंगा। गाइऐ गंगा, कहाइऐ गंगा, कहा' गहै गंगा, अहे कहैं गंगा ॥ वि.-"दासजी ने उपरोक्त दोहा लक्षण-रूप और सवैया उदाहरण रूप •'अजहि"-जिसके उच्चारणों में जिह्वा ( जीभ ) का स्पर्श नहो, चित्रोत्तर लिखा है। इस संपूर्ण छंद के उच्चारण में जीभ का स्पर्श नहीं होता। अथ नियमित बरैन-चित्रालंकार लच्छन जथा- इक-इक ते छब्बीस लगि, होत बरैन-अधिकार । तदपि कह्यौ में सात-हो, जॉन ग्रंथ-विस्तार ।। वि०-"जिसमें संपूर्ण पद्य का एक-ही अक्षर के शब्दों से निर्माण किया जाय उसे "नियमित-वर्ण' चित्रालंकार कहा जाता है। दासजी ने यहाँ कहा है कि ऐसे "नियमित-वर्ण' के उदाहरण "छब्बीस" ( २६ ) वर्णानुसार (व्यंजनों के अनुसार) हो सकते हैं, पर प्रथ-विस्तार के भय से केवल-सात (७) हो उदाहरण दिये हैं। ये उदाहरण एक अक्षर निर्मित, दो अक्षर निर्मित, तीन, चार, पांच, छह और सात अक्षरों से निर्मित–नियमित हैं ।" अथ एक बरन नियमित को उदाहरन ती तू ता" ते तीति ते, ताते तोते तीत । तोते, ताते, तत्तते', तीते तीता तीत ॥ अथ द्वै बरन नियमित कौ उदाहरन रोम रमा रोरै रुरै, मुरि मुरि मेरी रारि । रोम-रोम मेरौ ररे, रामाँ-रॉम मुरारि ॥ अथ तीन बरन नियमित को उदाहरन मँन-मोहन मेहमाँ महा, मुनि मोहे मन-माँहिं । महा मोह में मैं नहीं, नेह मोह में नौहिं । पा०-१.(का०) (३०) काहे को धाइ है श्री अप-ओघ कों,...| २. (सं० पु० प्र०) काका ककी की कहा कि, "। ३. (३०) (सं० पु० प्र०) के ही गहें ...। (प्र०) कही कहै गंगा"। ४. (का०)(३०) (प्र०) हों सात लों"। (सं० पु० प्र०) कहे में सात लों,.."। ५. (का०) तीति...1६.(०) तो, तीते। ७. (का०) (३०) रोर मार रो-रौ रुरै"(प्र.) रोर मार गैरे..।