पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६२०

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

काव्य-निर्णय ५८५

शृगार से–बनाव से, दास का नाम क्या-"जन", रस कितने ? "नव'

नौ, विनयी कोंन होता है-"बर" श्रेष्ठ, रेफ किसे कहते हैं ? "र" को, करने को क्या कहते हैं- "कीन". क्र र मित्र किस बात को याद रखते हैं- "न जा"= दुश्मनी को, साधुजन किसे गाते (भजते) हैं- "जॉनकी-रबन-जस", (जानकी-बर श्रीराम के सुयरा) को, कुलटा सती को क्या सिख नाती है-"सजन = बर की न जा"=प्रीतम के पास न जा, उससे विलग रह ।" चित्रोत्तर बरनन जथा- जोई अच्छर प्रस्न कौ, उत्तर ताही-माँह । 'चित्रोत्तर' ताकों' कहत, सकल कबिन के नाँह ॥ अस्य उदाह रन जथा- कॉन परावन देव सताबन, को लहैं भार धरै धरती कौ ॥ को दस ही में सुन्यों जित' ठौरन, कीनों दसों दिगपालँन-टीकौ । जाँनत आप को वृद समुद्र में, का में सरूप सराहिऐ नीकौ । का दरबार न सोहत सूरन, को पजराबत पुन्न तपी कौ ॥ वि०--"दासजी कृत यह उदाहरण "चित्रोत्तर" अलंकृत "अंतापिका" (जिसका उत्तर उसी में छुपा हो ) का उदाहरण है । अर्थात्, प्रत्येक पादांतर्गत प्रश्न का उत्तर उसी पाद के मध्य छिपा है । जैसे---"देवतात्रों को सताने" और भगाने वाला कोंन १ "कोनप" =राक्षस, धरती का भार कोंन लिये है - "कोल" = वाराह, दस कोंन ? "कोद -दिशा, लोकपालों का तिलक (अग्रगण्य) कोन,-"कोबिद" = ब्रह्मा, कोन अपने को (संसार) समुद्र में पड़ा मानता है- "जॉन" जीव, किसका सुंदर रूप सराहनीय है--"कामे"=कामदेव का, सूरबीरों के दरबार में कोंन शोभा नहीं पाता है -"कादर", तपस्वियों के पण्य को कोंन जलाता है-"कोप"-क्रोध । अस्तु, ये संपूर्ण उत्तर जैसे कि लिखे गये हैं-"कोन परा"...", "को ल"है."..:, "को दस."..", "क बिद"सों."..., "जॉनत०"..", "कामें", "का दर 'बार०"..", "को प"ज- राव.. "इत्यादि पदांशों के पूर्व भाग से दिये गये हैं।" पा०-१. (का०)(३०) साही कहूँ"। २ (का०) देव"। ३. (३०)(प्र०) को । ४.(३०) जिन...। ५. (प्र०) कोविद सौ...। ६. (का०) (३०) (प्र०) को। ७ (प्र०) बंद "। क. (प्र०) सराहिऐ। (सं० पु० प्र०) सराहिबौ । (रा० पु. नी० सी०) सुहाइऐ । ६. (का०) (२०) (३०) को । १०. (का०) सोह न सरन"। (३०) कादर बारन सोहन सरन"। ११. (०) (प्र०) कोप जरावत पुन्न। १२. (का०) (३०) (प्र०) को।