५८० काव्य-निर्णय पुनः उदाहरन जथा- कैसी नृप - सेनाँ भली, कैसी भली न नारि । कैसौ मग बिन-बारि कौ-"अति रजवतो" बिचारि ॥ अस्य तिलक इहाँ हू तीनों प्रस्नन-"कैसी नृप-सेना भली ( सुंदर ), कोंन-सी नारि न भली ( अच्छी नहीं), बिना-बारि ( जल ) को मग (मार्ग) कैसौ कौ उत्तर "अति रजबती" तें दिया है। अर्थात् अति रजोगुन वारी नृप-सेना भली (सुंदर ), अति रजवती (रजस्वला) स्त्रो अच्छी नहिं और बिना बारि को मग कैसौ-"अति रजवतो' (बहुत धूर बारौ)। अथ नाग-फाँसोत्तर चित्रालंकार- इक-इक अंतर तजि बरन, द्वै-द्वै बरन मिलाइ । 'नाग-फाँस"-उत्तर वही, कुंडल सरस बनाइ ।। अस्य उदाहरन कहा चंद, को स्याँम, छत्रिन को गुन कोंन कहि । कहा संबत नॉम, पारसिक-बासी कहें । कहा रहे संसार, बाँहन कहा कुबेर को। चाहें कहा भुवार, 'दास' उतर दिय-"सरसजॅन" ।। अस्य तिलक "यहाँ एक - एक बरन “सरस-जैन" में ते काँदि के सब को उत्तर दियो।" पा०-१. (का०) [३०] [सं० पु० प्र०] कैसी मग विन बारि की...| २, (का०) (३०) (प्र०) नागपास...। ३. (का) (३०) यही.... (प्र०) यहै.....(३०) में...। (प्र०) नेहा चेंद को स्यांम...1 ५.( का०) कह...1६. (का०) कह संबत को...।
पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६१५
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।