पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६११

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कान्य-निर्णय साथ ये श्राकार-निष्ठ वर्गों का औपचारिक ( लाक्षणिक ) अभेद मान लेने से यह शब्दालंकार मानना चाहिये........." अर्थात् लिखित अक्षरों को वास्तविक शब्द तो नहीं कह सकते, पर वे शब्दों के ही संकेत होने के कारण लक्षण-द्वारा उनमें गौण-रीति से वर्णादि शब्दों का प्रयोग करने पर उसे शन्दालंकार-ही मानना उचित है (सा. द०-"हिंदी विमला" टीका पृ० १०७)। अर्थात्, यहाँ वर्ण प्रथक्-प्रथक् अपने-अपने स्थान पर लिखे जाने के कारण चित्रण-चमत्कार तो उत्पन्न करते हो हैं, साथ-ही वे पूर्ण शब्दों के अंश विशेष भी हैं, इसलिये इनका अभेद ही माना जाता है। ब्रजमापा के प्राचार्यों ने भी इसे गोरख-धंधे के जैसा कटकर माना है, फिर भी इसका वहाँ वर्णन मिलता है और खूब मिलता है । महाकवि केशव ने और उनके अनुकरण पर काशिराज ने अपने-अपने प्रथ-'कवि-प्रिया' और 'चित्र-चंद्रिका' में इस अलंकार का विशद वर्णन किया है । कवि की निपुणता और मनोरंजकता तो इसके प्रत्येक भेद में दिखलायो पड़ती हो है, साथ ही इस अलंकार के उदाहरण निर्मित करने में कुछ कठिनाइयाँ हैं और उन्हें सुबोध करने के सुझाव भी, जैसा कि दासजी ने कहा है- "बव, जय बग्नन जाँनिऐ चित्रकाव्य में एक । भरघ चंद को जिनि करो, छूटें लगै विबेक ॥" अर्थात् इस अलंकार में ब, व, ज, य, र, ल, ड, ल में कुछ भेद नहीं होता। अनुस्वार, अर्धानुस्वार, विसर्ग, ह्रस्व, दीर्घ होने न होने की कुछ बाधा नहीं पाती और अंध, बधिरादि दोप तथा गणागण का भी विचार इस अलंकार में नहीं किया जाता ।” अथ चित्रालंकार-नामादि वरनन जथा- 'प्रस्नोत्तर' चित्रित करें, सज्जन सहित उमंग । द्वै विधि 'अंतरलापिका', 'बहरिलापिका' संग ।। 'गुप्तोत्तर' उर-माँन के, 'व्यस्त समस्तै' जॉन । 'एकानेकोत्तर' बहुरि, नाग - पास पैहचान ।। हैक्रम 'ब्यस्त-समस्त' पुनि, कमल-बंध-बत मित्र । सुद्ध “गतागत' 'सृखला', नवम जॉनिऐं चित्र ।। बा०-१, ( का० ) (३०) (प्र० ) सुमति...!