२६ काव्य-निर्णय गोंनी (गौणी) लच्छना-लच्छिन तथा भेद बरनन 'दोहा' जथा... गुन-लखि 'गोनी-लच्छिनाँ, द्वै विधि' तासु प्रमान । 'सारोपा' प्रथमें गनों, दूजी साध्यवसॉन ॥ * वि०-"सादृश्य के संबंध से जहां लदयार्थ ग्रहण किया जाय, वहाँ "गौणी-लक्षणा" होती है । सादृश्य-समान गुण, धर्म ।" सारोपा गोंनी लच्छना-लच्छिन-उदाहरन 'दोहा' जथा- सगनाँरोप सु लच्छिना, गुन लखि करि आरोप । जैसें सब कोऊ कहें, बृषभै गवई गोप ॥+ वि०-जब किसी वस्तु पर सादृश्य गुण के कारण किसी अन्य वस्तु का आरोप किया जाय--गुण लखकर तदनुसार आरोप किया जाय । जैसे-"बृषभै गवई गोप" में गाँव के गोप को वृषभ (बैल,मूर्ख) कहा जाना ।" पुनः उदाहरन 'दोहा' जथा- सर सेर-करि माँनिएँ, कादर स्यार बिसेख । बिद्याबाँन त्रिनेन है, कूर अंध करि लेख ।। वि०-“यहाँ भी सूरवीर को शेर (सिंह), कादर (कायर) को स्यार (गीदड़), विद्वान् को त्रिनेत्र और मूर्ख को अंधा कहा गया है, जो वास्तव में नहीं, पर गुण के कारण हैं।" साध्यवसाना गोंनी लच्छना-लच्छिन-उदाहरन 'दोहा' जथा- 'गोंनी साध्यवसॉन' सो, केवल-ही उपमाँन । कहा वृषभ ते करत हो, बातें है मतिमाँन । वि०-"जहाँ गुण-सादृश्य के कारण केवल लक्षक शब्दों के द्वारा-ही किसी वस्तु का कथन-वर्णन किया जाय, अथवा-केवल उपमान-वाची शब्दों से कथन किया जाय, वहाँ यह लक्षणा होती है। जैसा- “कहा वृषभ०"...... उदाहरण में कहा गया है, अर्थात् बुद्धिवान् होकर वृषभ (मूर्ख) से बात करना......" ___पा०-१. [भा०जी०] [३] ही...। २. [प्र०] [4] त्रिनयन हैं...। ३, [प्र०-२] जहां । ४, [भा० जी०] [प्र०][१०] कहत... | ५, [प्र०-२] मतिवान ।' ____* का० प्र० [भानु] पृ० ७५ 1+ का० प्र० [भानु] पृ० ७५ । व्य० म०[ला० भ० पृ० १६ ।क० प्र० [ भानु ], पृ० ७५ । व्य० मं० [ला० भ०] पृ० १७ ।
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