काव्य-निर्णय ५७३ वि०-"जहां कहते समय पुनरुक्त-सा लगे, पर पुनरक्त न हो वहाँ कवि लोग "पुनरुक्तवदाभास (पुनरुक्त+वत्+आभास ) मानते हैं।" संस्कृत-साहित्यकारों ने 'पुनरुक्तवदाभास' ( विभिन्न आकारवाले शब्दों का वस्तुतः एक अर्थ न होने पर भी एक अर्थ जैसी प्रतीति ) के- शब्दगत' और 'शब्दार्थ उभयगत' दो रूप मानते हुए पनः शब्दगत के भंग और अभंग नाम तीन भेदों का उल्लेख किया है । पुनरुक्त एक काव्य-दोष है, पर एक अर्थ वाले दो शब्द भिन्न श्राकार के होते हुए भी यदि कहीं एक-ही अर्थ में प्रयुक्त हों तो दोष है, किंतु जब यह दोष साधारणतः देखने से तो प्रतीत हो, पर वास्तव में वह भिन्नार्थों में प्रयुक्त होने के कारण उपयुक्त-दोष-संयुक्त न हो, तब यह अलंकार बनेगा।" अस्य उदाहरन जथा-- अली, भँमर गुंजन लगे, होन लग्यौ दल-पात । जहँ-तहँ फूले बृच्छ-तरु, प्रिय पीतँम कित जात ॥ वि०-"दासजी कृत यह उदाहरण सुंदर है । यहाँ --अली, भँमर, दल, पात, बृच्छ, तरु, प्रिय तथा पीतम भिन्नाकार होते हुए भी समानार्थी जैसे होने के कारण पुनरुक्त जैसे प्रतीति होते हैं, पर ऐसा न होकर वे अपने-अपने वास्तविक पृथक-पृथक् अर्थों से सुशोभित हैं, इसलिये उक्त शब्दालंकार ही यहाँ कहा जायगा । पुनरुक्तवदाभास का निम्न-लिखित कवित्त भी सुंदर है, यथा- "भृगु-लात पद हीय, पिय-बर राजत हैं, मोरपंख पच्छ साजें मेरे मन भाव है। राजै हार बँनमाल, भाड़ ते दिखाई देत, ____ 'कासिराज' तन-पर गोरज सुहाब है। हरे परे दोष साँझ-समे मैं बिहारी स्याँम, ललित भरुन अंग ताम्र को लजाब है ॥ दछिन हरित हरे रंग-संग बलदेव, कुजर मतंग-दंत कंत धरें भाव है।" एक बात और -जैसे 'दास जी के उपास्य प्रथ' काव्य-प्रकाश (संस्कृत) में दास जो मान्य इस उल्लास के "श्लेष, विरुद्धाभासादि में पहले वक्रोक्ति और बाद को श्लेष, पुनरुतवदामास (8) नवें तथा विरोधाभास (विरुद्धाभास) का (१०) दसवे उल्लास में वहाँ उल्लेख किया गया है जहाँ कान्य के शब्दालंकारों का कथन है-वर्णन है । मुद्रा, वहाँ अप्राप्य है । अस्तु, उक्त अलंकारों का कथन और विवेचन करते हुए श्राचार्य श्री मम्मट ने प्रथम
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