पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६०५

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५७० काव्य-निर्णय दीप-दीप भैरव भए हैं नारि-दिन-सों, ललित सुहाई लीला सारंग-छटा की है। स्यामल तमाल-कोस-कोस लों कॅमोद कीन्हों, ___ 'अंबादत्त' सोहनी त्यों छाया बदरा की है। कोऊ सुघरई सों श्रीकृष्ण कों जु पाऊँ तब- भाली कल्यान करि बहार बरखा की है।" यहाँ "राग-रागिनी-नाम'-वर्षा-ऋतु के प्रतिपादक होने से मुद्रालंकार अति सुंदर बन पड़ा है।" अथ वक्रोक्ति लच्छन जथा- ब्यर्थ काकु ते अर्थ कौ, फेरि लगाबै तर्क । 'बक्र-उक्ति" तासों कहें, जे बुधि-अंबुज-मर्क । वि-"जहां व्यर्थ 'काकु' और 'तक' से अर्थ लगाया वा समझा जाय, वहाँ विद्वज्जन “वक्रोक्ति" शब्दालंकार मानते हैं। _____ वक्रोक्ति का अर्थ 'टेढ़ी-उक्ति" है। अतएव इस अलंकार में उक्ति की टेढ़ाई समझी वा दिखलाई जाती है । अर्थात् यहाँ किसी के कहे हुए वाक्य का अन्य ( सुनने वाले के ) द्वारा अन्यार्थ ( दूसरा अर्थ ) कल्पित किया जाता है । वक्रोक्ति में यों तो कहने वाला अनेकार्थवाची श्लिष्ट शब्दों का प्रयोग एक ही अर्थ को लेकर करता ही है, पर सुनने वाला उसका दूसरा अर्थ तात्पर्य के सहारे लगाता है। साथ-ही कभी-कभी अपनी बात कहने वाले के ढंग से वा स्वरों के प्रयोग से भी श्रोता उसका विपरीत अर्थ समझ लेता है । यह काकु-वक्रोक्ति कहलाती है। अस्तु, वक्रोक्ति के श्लेष और काकु से दो भेद हुए। यों तो संस्कृत-साहित्य में 'श्लेष' के सभंग और अभंग दो भेद और किये गये हैं, पर वे दोनों भेद दासजी ने नहीं माने हैं। शेष श्लेष और काकु से संश्लिष्ट वक्रोक्ति के अतिरिक्त-शुद्ध वक्रोक्ति युक्त तीन ही भेद माने हैं और उनके उदाहरण भी दिये हैं। एक बात और, वह यह कि कोई-कोई 'काकु वक्रोक्ति' को अर्थालंकार मानते हैं, पर यहाँ कंठ-ध्वनि से ही उसकी अलंकारता है और कंठ-ध्वनि (शब्द) श्रवण का विषय है, इसलिपे यह शन्दालंकार ही है। साथ-ही यह किसी अन्य व्यक्ति के द्वारा कहे हुर वाक्य का अन्य व्यक्ति के द्वारा अन्यार्थ कल्पना किये पा०-१. ( रा. पु० प्र०) बकोक्ती...| २. (का० ) (३०) जो...