काव्य-निर्णय ५६६ होंन लाग्यौ बाहर कलेस को कलाप उर- अंतर को ताप छिन - छिन-ही नसति है। चल - दल पात - सी' उदर पर राजी, रोंमराजी की बनक मेरे मन में बसति है। रसराज स्याही सों लिखी है नींकी भाँति, क्यों हूँ मॉनों जंत्र-पाँति घन अच्छरी लसति है ।। अस्य तिलक घनाच्छरी ( धन-प्रच्छरी) छंद को नाम है। मुद्रा को दूसरौ उदाहरन जथा- 'दास' अब को कहै बँनक लोल-नेनन की, ___ सारस, ममोला' बिन-भजन हराए-री । इन कौतौहास वा के अंग में अगिन-बास', ___ लिलही जुसारो-सुवासिंधु बिसराए-री ॥ परे वे अचेत, हरें वै चित सकल चेत, अलक भुजंगी डसे लोटॅन-लुटाए-री । भारत अकर करतूतँन'४ निहारि लई, • ताते'घुनस्याम लाल तो ते बाज भाए-री॥ वि०-"दासजी कृत प्रथम उदाहरण में मुद्रांकित चिह्न रूप नायिका और घनाक्षरी छंद तथा द्वितीय उदाहरण में पक्षी-विशेषों का उल्लेख हुश्रा है, अतः मुद्रालंकार है। भारती-भूषण (केड़िया-कृत) में इस अलंकार का उदाहरण पं० अंबिकादत्तजी व्यास कृत बहुत सुंदर दिया गया है, यथा- मेघ देस-देस नटखट भासा परि भाए, कान्हर लै गूजरी हिंडोरे छवि-छाकी है। पा०-१. (३०) (सं० पु० प्र०) की...। २. (का०) (३०) पान...। ३. (३०) (सं० पु.. प्र०) से...। ४. (का०)(वे.) (प्र०) काहू...! ५ (सं० पु० प्र०) घनाच्छरी...। ६. (का०) (सं० पु० प्र०) श्री खंजन बिन...। (वे ०) सारस-खंजन बिन...। ७. (का०)(३०) (सं०- पु० प्र०) हासौ...! . (सं० पु० प्र०) वाको... ६. (का०) (३०) (स० पु० प्र०) गासौ...। १०.(का०) लाल-ही...। ११. (का०) मुक.... (०) (प्र०) मुख...। १२; (३०) रहें...। १३. (का०) वै चित चेत सकल, मलक...। (वे०) वै सकल चिरु चित...। १४. (स० पु० प्र०) करतूत जिन...। १५. (का०) (३०)(प्र०) याते...।
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