पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६०३

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

५६८ काव्य-निर्णय है रेंग-साँवरौ. गौर-ग्यौ पुनि तेरे-ही प्रेम-पम्यो झकझोर है। है घनस्याम पै तेरौ पपीहरा, है प्रज-चंद पै तेरौ चकोर है।" दासजी की अन्यत्र पीछे दी गयी दो रचनाएँ जो "विरुद्धालंकार" के उदाहरणरूप १३ वें उल्लास में दी गयी हैं उत्तम हैं, यथा- "दरसावत थिर-दामिनी, केलि तरुन गति देत । तिल प्रसून सुरभित करत, नूतन-विधि झखकेत ॥ "प्रिया, फेरि कहु बैस-ही, करि विव लोचन लोल । मोहिं निपट मीठे लगें, ए तेरे कटु बोल ॥" "माँखों-ही में रहे हो, दिल से नहीं गये हो । हैरॉन हूँ य शोखी, आई तुम्हे कहाँ से ॥" -मीर अथ मुद्रालंकार लच्छन जथा- औरों अर्थ कबित्त को, सब्दौछल ब्यौहार। झलक नॉम'कि नॉम-गुन, 'मुद्रा' कहत बिचार॥ वि०-"जहाँ शन्द-छल के व्यवहार से कविता का अन्य अर्थ नाम से वा नाम के गुण से झलकता हो, वहाँ विचार कर 'मुद्रालंकार' दासनी ने कहा है। . मुद्रा का शब्दार्थ-"मुद्राप्रत्ययकारिण्यामानुसार नामांकित मुहर वा चिन्ह विशेष होता है । श्रस्तु, जिस प्रकार नामांकित 'मुहर' वा कोई अन्य चिन्ह किसी व्यक्ति विशेष का संबंध सूचन करती है, उसी भाँति मुद्रालंकार-द्वारा भी प्रासंगिक वर्णन में सूचनीय अर्थ सूचित किया जाता है। अर्थात् जहाँ किसी पद या पदों से प्रस्तुत अर्थ के अतिरिक्त किसी दूसरे अर्थ का भी प्रकाश हो, वहाँ यह अलंकार कहा व माना जाता है । दासजी ने इस अलंकार के दो उदाहरण दिये हैं, जो अलंकार-उदाहरण-दृष्टि से अधिक स्फुट हैं।" मुद्रालंकार को प्रथम उदाहरन जथा-- जब-ही ते 'दास' मेरी नजर परी है वो, तब-ही ते देखबे की भूख सरसति है। ___पा०-१. (प्र०) नामक नाम...। २. (का०) (३०) भौर स मुद्रा चार...। ३. (प्र.) सुचारु।