पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६०१

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५६६ काव्य-निर्णय नाम का अलंकार प्राचार्य भट्टि से लेकर मम्मट और रुय्यक तक सउने माना है। वहाँ इसका लक्षण--"वस्तुतः विरोध न होने पर भी विरोध के अाभास रूप वर्णन को कहा गया है। अर्थात्, जहाँ विरोध-सा भासित हो, पर वास्तविक विरोध न हो, वहां यह अलंकार मानना चाहिये, जैसा श्री वामन कहते हैं- विरुद्धाभासत्वं विरोधः । ४, ३, १२ । श्रापके बाद अन्य प्राचार्यों ने इसी सूत्र को पकड़ कर “विरोध" या "विरोधाभास" का लक्षण निम्न प्रकार से किया है,- "विरोधः सोऽविरोधेऽपि विरुद्ध त्वेन यद्वचः।" -काव्य-प्रकाश, १०,१६६ अथवा- "विरुद्धमेव भासेत विरोधोऽसौ..." -सा० द०, १०, ३५ अर्थात्, वस्तु स्थिति के अनुसार जिन दो वस्तुयों में परस्पर विरोध न हो, पर वे विरुद्ध वस्तुत्रों की भाँति वर्णन की जाँय, अथवा वस्तु की स्वाभाविक दशा के अनुसार जहाँ वस्तुत्रों में विरोध न भो हो, फिर भी परस्पर विरुद्ध-भांति से उनका वर्णन या कथन किया जाय, वहाँ विरोधाभास अलंकार समझना चाहिये । साहित्य-दर्पण-रचयिता का अभिमत वामन के अनुसार ही है-पृथक् नहीं केवल कहने का ढंग प्रथक् है । ब्रजभाषा-थों में विरोध या विरोधाभास का लक्षण इस प्रकार किया गया है, जैसे- "सो 'विरोध', अविरुद्ध में जहाँ बिरोध अभिधान। -चिंतामणि" "मासै जबै बिरोध सौ, वहै बिरोधाभास। -यशवत सिंह" "जहाँ बिरोध-सौ लगत है, होत न साँच बिरोध। -मतिराम" "प्राभासै बिरोध तहँ बरने 'विरोधाभास ....। -दूलह" "कहत 'विरोधाभास" तह, झूठौ जहाँ बिरोध । -पद्माकर" यहाँ भी केवल शन्द-छलना के सहारे वही श्री वामनाचार्य का "विरुद्धा- मासत्वं विरोध-" छा रहा है, अन्य कुछ नहीं । संस्कृत-अलंकार मंथों में विरोधा- भास के दस भेद माने हैं, जिन्हे पूर्व में दासजी ने कहे हैं, किंतु इन दसो भेदों का विस्तार बाद के भाषा-क्षेत्र में आगे न बढ़ सका, एक-हो रूप में रह गया। 'दासजो ने अपने से प्रथम श्राचार्य केशव की भांति "विरुद्ध" (विरोध) और "विरोधाभास" को (श्राचार्य केशव की भांति) प्रथक्-प्रथक् अर्थालंकार,शब्दालंकार माना है।" इसलिये यहाँ एक-ही उदाहरण दिया है। अन्य-जाति, गुण,