२५ काव्य-निणय बाँसुरी की तान को 'मींच' कहिनों असत् है वो विशेषोक्ति अलंकार भयौ, यै गुन है, इत्यादि ......" अथ साध्यवसाना लच्छना-लच्छिन बरनन 'दोहा' जथा- जाको सँमता कहँन कों, वह मुख्य कहि देह । 'साध्यवसाना'3-लच्छना, विषै नौम नहिं लेह ॥ * वि०-"जहाँ अारोप के विषय का शब्दों-द्वारा निर्देश (कथन) न होकर केवल अारोप्यमाण का ही कथन किया गया हो वहाँ 'शुद्धा साध्यवसना-लक्षणा' होती है। आरोप विषय-जिस पर आरोप किया गया हो, और अारोप्यमाण- जिन शब्दों से श्रारोप किया जाय...। साध्यवसाना 'रूपकातिशयोक्ति' अलंकार के अंतर्गत भी रहती है । यथा- "रूपकातिशयोक्तिश्चेद्रूप्यं रूपक मध्यगम्।" रूपक में अंतर्हित रखकर जहाँ रूप्य का बोध कराया जाय, अर्थात् जहाँ केवल उपमान के द्वारा उपमेय का ज्ञान करा जाय, वहाँ 'रूपकातिशयोक्ति' कहीं जाती है। अस्तु, दोनों का विषय एक है।" अस्य उदाहरन 'दोहा' जथा- बैरिन कहा बिछावती, फिरि-फिरि सेज कसाँन । सुने न मेरे प्रॉन-धुन, चॅहत आज कहुँ जॉन ॥ + ___ अस्य तिलक बैरिन सखी कों, कृसॉन फूल को और मान-न पति को कयौ, पै सखी, फूल और पति सूधै न कहयो, जाते साध्यवसाना लच्छनौ कहिऐ। "यहाँ केवल भारोप्यमान रहवे सों 'साध्यवसाना' और साश्य-संबंध के न रहने के कारन 'सुदा प्रयोजनवती है।" पा०-१. (न्य०म०) जाको भारोन करै...। २. (प्र०) (भा० जी०) करि...। ३. (का० प्र०) (न्य० म०) (सं० प्र०) साध्यवसान सु लच्छिना, । ४. [प्र०] सेल...! ५. [प्र०] [वै] [का० प्र०][at० म०] सुन्यों...। . _ * का० प्र० (भानु) १० ७४ व्यं० मं० (ला० भ०) पृ० १५ 11, का० प्र० [भान] ५० ।
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