पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५९६

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काव्य-निर्णय ५६१ प्रस्त है । संस्कृत-ग्रंथों में तो इसका विवेचन है, पर ब्रजभाषा में उसके दर्शन नहीं होते। अतएव संस्कृत श्राचार्यों का अभिमत है कि "जहाँ श्लेष रहता है वहाँ अन्य अलंकार भी रहते हैं, क्योंकि उसका शुद्ध उदाहरण नहीं बन सकता। वह (श्लेष) तो सभी अलंकारों का शोभा कारक है, यथा- ___ "श्लेषः सर्वाषु पुष्णाति प्रायः वक्रोक्तिषु श्रियम् ।" -काव्यादर्श, २, १६३ ___ और यदि सर्वत्र अन्यान्य अलंकार स्वीकार कर लिये जाय तो श्लेष नाम से कोई अलंकार नहीं हो सकता, इसलिये जहाँ श्लेष के साथ अन्य अलंकार हों वहां उन (अन्य अलंकारों ) का आभास मात्र समझ कर "निरवकाशोवि- घिरपपवाद" (जिस वस्तु की स्थिति के लिये किसी विशेष स्थान के अतरिक्त अन्य-दूसरा स्थान नहीं होता, तब वह वस्तु उस दूसरी वस्तु को जिसके लिये दूसरा स्थान हो, उस स्थान से हटा कर वहाँ स्वयं प्रधानता कर लेने) के न्याया- नुसार अन्य अलंकार का -जिसकी स्थिति श्लेष के बिना भी हो सकती है, बाधक मान श्लेष को प्रधानता दी जाती है और इस प्रकार श्लेप स्वतंत्र अलंकार कहा जा सकता है। प्राचार्य मम्मट, शुद्ध श्लेप और अन्य अलंकारों से मिश्रित श्लेष भी मानते हैं वे कहते हैं-जहाँ श्लेप के साथ अन्य अलंकार संमलित रहता है, वहाँ उन दोनों में जो प्रधान हो उसे मानना चाहिये। श्रीमम्मट के इस अभिमत को उनके परवर्ती श्राचार्य 'हेमचन्द्र' और विश्वनाथ चक्रवर्ती ने भी माना है। यही नहीं, वहाँ (संस्कृत-साहित्य में ) श्लेष और ध्वनि का प्रथक्- करण बतलाते हुए कहा गया है कि "जिस प्रकार श्लेष का अन्य अलंकारों के साथ संबंध है, उसी प्रकार 'ध्वनि-कान्य' के साथ भी उस (श्लेष) का गहरा सबंध है, क्योकि श्लेषालंकार में श्लिष्ट शब्दों द्वारा जितने भी अर्थ माने जा सकते हैं, वे सब अभिधा-द्वारा-ही वाच्यार्थ होते हैं । इस कथन के अपवाद रूप श्लेषालंकार के लक्षण में इन आचार्यों ने "अभिधान" पद का प्रयोग किया है, अर्थात् श्लिष्ट-शब्दों से अनेक अर्थों का 'श्रमिधान' (कयन) किये जाने को श्लेषालंकार माना है । अस्तु, अलंकार रूप श्लेष में एक से अधिक सभी अर्थ अभिधा-शक्ति के अभिधेय वाच्यार्थ होने के कारण एक-ही साथ बोध होते हैं । ध्वनि में ऐसा नहीं होता । वहाँ अभिधा-द्वारा एक वाच्यार्य का बोध हो जाने पर प्रकरण-आदि के कारण उस (अभिधा) की शक्ति रुक जाती है, वह दूसरे अर्थ का बोध नहीं करा सकती, अपितु दूसरा अर्थ वहाँ (ध्वनि में) व्यंग्यार्थ रूप में ध्वनित होता है, इत्यादि.........।