५६० काव्य-निर्णय प्रकार प्राचार्य श्री मम्मट अपने "काव्य-प्रकाश" में इस उभयात्मक (सभंग-अभंग) श्लेष को शब्दालंकार-ही मानते हैं। वहाँ श्रापका कहना है कि "गुण, दोष और अलंकारों का शब्द और अथ-गत विभाग" अन्वय और व्यतिरेक पर निर्भर है, इसलिये अभंग श्लेष जहाँ अर्थाश्रित होगा वहाँ वह अर्थालंकार की गणना में जायगा और जहाँ वह शन्दाश्रित होगा, वहाँ वह शब्दालंकार की श्रेणी में माना जायगा। अलंकार प्रायः दो भागों ( शब्दालंकार और अर्थालंकार ) में विभक्त माने जाते हैं। जो शन्द को चमत्कृत करते हैं वे शब्दालंकार (अनुप्रासादि ) और जो अर्थ को चमत्कृत करते हैं वे अर्थालंकार कहे जाते हैं । इनका एक तीसरा वर्ग "उभयालंकार (शब्द और अर्थ दोनों के आश्रय में रहकर उन्हें चमत्कृत करनेवाले ) भी माना जाता है। अस्तु, इन तीनों प्रकार के अलंकारों का विभाजन जैसा पूर्व में कहा गया है-अन्वय और व्यतिरेक पर निर्भर है। अन्वय-'जिसके होने पर जिसको स्थिति रहे और व्यतिरेक-जिसके न होने पर जिसकी स्थिति न रहेने को कहते हैं । अर्थात् जो अलंकार किसी शब्द-विशेष की स्थिति रहने पर-ही रहता है, उसके स्थान पर उसी अर्थवाला दूसरा शब्द रखने पर नहीं रहता वह “शब्दालंकार" कहलाता है और जो अलंकार शब्दा- श्रित नहीं रहता-जिन शब्दों के प्रयोग पर किसी अलंकार की स्थिति रहती हो उन शब्दों के स्थान पर वैसे-ही अर्थ वाले दूसरे शब्दों का व्यवहार करने पर भी उसी अलंकार की स्थिति रह सकती है तो वह "अर्थालंकार" कहा- सुना जायगा। श्राचार्य वामन ने गुणों को-ही शब्द और अर्थ में विभक्त कर श्लेष को अर्थ. गुण रूप मानते हुए-"घटना-श्लेषः" कहा है। यह श्लेष रूप घटना--"क्रम, कौटिल्य, अनुल्वणत्व और उपपत्ति के योग से बनती है और यही श्लेष कह- लाती है। यहाँ क्रम-अनेक क्रियात्रों की परंपरा, उसके भीतर अनुस्यूत विदग्ध-चेष्टित 'कौटिल्य', प्रसिद्ध वर्णन शैली-अनुल्वणत्व और युक्ति-विन्यास उपपत्ति कही गयी है। साहित्य-दर्पण के रचयिता विश्वनाथ चक्रवर्ती भी श्लेष को उभयालंकार- अर्थात्, शब्द और अर्थालंकार मानते हैं। ब्रजभाषा में श्लेष, कवि चिंतामणि के अनुसार शन्दालंकार और भाषा- भूषण ( यशवंतसिंह ) के अनुसार सर्वत्र अर्थालंकार ही माना गया है। श्लेष का विषय प्रति व्यापक है, क्योंकि उसकी स्थिति अनेक अलंकारों में रहती है, साथ ही इसका विषय अति महत्वपूर्ण होते हुए भी बज विवाद-
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