पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५९१

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५५६ काव्य-निर्णय दूसरे चरण के अंत का शन्द तीसरे चरण के श्रादि में और तीसरे चरण के अंत का शब्द चौथे चरण के श्रादि में तथा चौथे चरण के अंत का शन्द प्रथम चरण के श्रादि में शृखला-बद्ध रूप से हो वहां सिंहावलोकन रूप उपरोक्त अलंकार कहा जायगा। काव्य-प्रकाशकार इसे "श्राद्य तिक" नामक यमकालंकार मानते है । वहाँ इसका उदाहरण निम्न प्रकार है- "सरस्वति प्रसादं मे स्थिति चित्तसरस्वति । सरस्वति कुरु क्षेत्र कुरुक्षेत्र सरस्वति ॥" सिंहावलोकन का अर्थ है सिंह की भांति देखना, क्योंकि सिंह जब चलता है तब आगे और पीछे देखता हुअा चलता है, इसी भांति कवि जब अपनी कविता में कुछ शब्दों वा पद विशेषों का चरणों में उत्तरोत्तरादि करता है तब विज्ञ-जन उसे भी सिंहावलोकन कहते हैं । इस सिंहावलोकन से कवि का कान्य माधुर्य-गुण से अति अधिक सुंदर और श्रवण-सुखदायक हो जाता है।" अस्य उदाहरन जथा-- सर सौ बरसौ करै नीर अली, धुनु लीने अँनंग पुरंदर सौ। दर सौ चहुँ ओरन ते चपला, करि जाति'कृपाँन के औझर सौ॥ झर सोर सुनाइ हरै हियरा, जु किऐं घन अंबर-डंबर सौ। बरसो ते बड़ी निसि बैरिनि बीतति बासर भौ बिधि-बासर सौ ॥ वि०-"दासजी का 'सिंहावलोकन रूप' यह उदाहरण कुछ उपयुक्त नहीं है, कारण-वह पद-भंगता से बनता है । अस्तु, सिंहावलोकन के दो उदाहरण नीचे और दिये जाते हैं। प्रथम उदाहरण है "श्री सोमनाथ कवि" का यथा- "गाह हों मंगलवार चॅने, सखि भावति-ही तन-ताप बुझाइ हों। झाइ हो पाँइ गुलाबँन सों, कमखाब के पाँबरे पुंज बिछाइ हों। छाइ हो मंदिर बादला सों 'ससिनाथ' जू फूलन की झरलाइ हों। नाइ हों सौतिन के उर-साल, जबै हँसि लाल को कर लगाइ हों। धावन-भेजि सखी वा देस, बसें जा देस पिया मन-भावन । मावन भोर या लूक लगी, तन-बीचि लगी जियरा भरसावन ॥ पा०-१. (सं०पु०प्र०) रस सौ बरसा करै नीर'" । २. (का०) (३०) (प्र०) जाति..." ३. (वै०) को। ४. (३०)(सं०पु०प्र०) भारसो रस नाइ हनें हियरा"। ५. (का०) (20) (सं०पु०प्र०) बीती तो