काव्य-निर्णय ५५३ श्रावृत्ति के उचित स्थान हैं। इन पादादि-मध्य और अंत को लेकर वामनाचार्य ने यमक के मुख्यतया सात भेद माने हैं। पुनः अापने भंग-अभंग को लेकर अन्य भेदों का भी उल्लेख किया है । मम्मटाचार्यने यमक के प्रथम सात फिर नौ, ग्यारह, बीस, तीस और चालीस भेद तथा बाद में अनेक (संख्यातीत) भेदों का उल्लेख किया है । विश्वनाथ चक्रवर्ती भी "एतच्च पादपदार्थ श्लोकावृत्तित्वेन पादाचावृत्तेश्चानेकविधितया प्रेभूनतम भेदम्" ( यमकालंकार के पादावृत्ति, पदा- वृत्ति, अर्धावृत्ति, श्लोकावृत्ति-श्रादि भेद और इनके भी अनेक भेद होने से अति अधिक भेद) द्वारा यमक के संन्यातीत भेद बतलाते हैं।" ब्रजभाषा-साहित्य में “यमक" का लक्षण विविध कवियों-द्वारा कथित बहुत कुछ एक जैसा-ही मिलता है, यथा- "जमक, सन को फिरि स्रबन, अर्थ जुदौ सो जानि । ___ अर्थात्, जहाँ किसी शब्द का पुनः श्रवण हो ( कोई शब्द-विशेष बार-बार अथवा द्वितीय बार सुन पड़े ) और अर्थ भिन्न हो तो वहाँ "यमकालंकार" भाषा-भूषण के रचयिता मानते हैं। इनसे प्रथम यही लक्षण "चिंतामणि" त्रिपाठी ने भी कहा है, जैसे- "अर्थ होत अन्यार्थक, बरनन कों जहँ होइ । फेरि स्रबन सो 'जाम' कहि, बरनत यों सब कोई ॥ -कविकुल-कल्पतरु और दूलह कवि (कविकुलकंठाभरण) कहते हैं- बार-बार पद-अर्थ जहँ, भिन्न 'जमक' परकास ॥" अन्य प्राचार्यों ने भी इनसे ही मिलते-जुलते लक्षण 'यमक' के लिखे हैं। यमक-भेद में वे मौन हैं । हाँ, कोई-कोई भंग अभंग शब्दों की श्रावृत्ति के कारण इसके 'दो भेद' मानते हैं । ब्रजभाषा-रीति प्राचार्य केशव ने अग्निपुराण (संस्कृत) के अनुसार यमक के दो भेद-'अव्ययेत' और 'सन्ययेत'की अवतारणा और की है । ये अन्ययेत और सव्ययेत वास्तव में अव्यपेत और सन्यपेत हैं, जो लेख-दोष के कारण अपने वास्तविक रूप से हट गये हैं । अव्यपेत–व्यवधान (अंतर) का न होना, अर्थात् जिन पदों वा वर्गों को श्रावृत्ति हो उनकी समीपता यहाँ आवश्यक है, साथ-ही प्रयुक्त पदों वा वर्गों के बीच कोई अन्य पद पा वर्ण नहीं होने चाहिये और "सव्यपेत"-दो साम्य पदों के मध्य व्यवधान-अंतर" को कहा गया है। यहाँ जिन पदों वा वर्णों की श्रावृत्ति होती है, वे समीप नहीं दूर-दूर रहते हैं।
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