५५२ कान्य-निर्णय "अर्थे सत्यर्थभिमानां वर्णानां सा पुनः भुतिः । यमकं०......." ६, ८३ अर्थात् यदि अर्थ हो तो विभिन्न अर्थ वाले उन्हीं-उन्हीं वर्णों का बारंबार वैसा ही सुनायी देना 'यमक' कहलाता है।" विश्वनाथ चक्रवर्ती ने 'साहित्य-दर्पण' में 'यमक' का लक्षण इस प्रकार कहा "सत्यर्थे प्रथगायाः स्वरव्यंजन संहते । क्रमेण तेनैवावृत्तिर्यमकं विनिगद्यते ॥" १०, ८, यदि स्वर-व्यंजन-समुदाय अर्थवान् (सार्थक) हो,-भिन्न अर्थ वाले हों, तो उनको क्रमशः आवृत्ति को 'यमक' कहते हैं। यमक में, जैसा पूर्व में लिखा जा चुका है, जिस समुदाय की श्रावृत्ति हो उसका अंश-विशेष वा सर्वाश के सार्थक होने पर श्रावृत्त-समुदाय का विभिन्नार्थक होना आवश्यक है, क्योंकि समानार्थक शब्दों की श्रावृत्ति को 'यमक' नहीं कहते। चंद्रालोककार कहते हैं- "भावृत्तवर्णस्तवकंस्तवकंदांकुरं कवेः । यमकं०...॥" जहां किसी भी दो-तीन अक्षरों के समूह को श्रावृत्ति हो, उसे “यमक विज्ञ-जन कहते हैं।" यमक के प्रति-उसके लक्षण के प्रति, उपरोक्त मत संस्कृत के कुछ चुने हुए साहित्याचार्यों के हैं । इन सब लक्षणों में प्राचीन भामह और नवीन विश्वनाथ चक्रवर्ती के लक्षणों से वामन के लक्षण में कुछ विशेषता है—नवीनता है, क्योंकि वे अपने लक्ष्य में स्थान-नियम का विशेष रूप से उल्लेख करते हुए उसका विस्तारपूर्वक विवेचन करते हैं। भामह-श्रादि प्राचार्यों ने इस स्थान- नियम को स्वयं समझलेने योग्य मान, न तो यमक के लक्षण में उसका उल्लेख किया है और न विस्तार...। किंतु श्रीवामन ने स्फुट रूप से यहां कहा है कि "अनेकार्थ (भिन्न-अर्थ) वाला एक पद, अथवा अनेक पद और उसी के समान एक वा अनेक अक्षर स्थान-नियम से होने पर श्रावृत्त रूप में यमकालंकार कहा जायगा ।" यह स्थान-नियम यमक के प्रयोजन पद की अपनी वृत्ति (उपस्थिति) से, अथवा दो विभिन्न पदों के अंशों से मिलकर एक पद जैसा प्रतीति होने वाले सजातीय के साथ संपूर्ण रूप से, अथवा एक देश से अनेक पादों में व्याप्ति" कहा जाता है । तात्पर्य यह कि श्रावृत्ति पदों को स्थिति एक पाद में न होकर मुख्यतः अनेक पादों में होनी चाहिये, क्योंकि स्थान-नियम अनेक पाद-व्याप्ति कही- सुनी जाती है-एक पाद-पादस्थ श्रावृत्ति नहीं।' यमक में पदादि की आवृत्ति कहाँ करनी चाहिये, उसके उचित स्थानों का वर्णन करते हुए श्री वामनाचार्य कहते हैं-"एक संपूर्ण पाद, एक अथवा अनेक पाद के आदि, मध्य और अंत भाग
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