५४८ काव्य-निर्णय बीस बिसे बिष झिल्ली झलें, तड़िता तँन-ताड़ित के तरपै-री। मारै तऊ सुर के सर सों बिरही को बस बरही बड़' बैरी।। अथ लाटानुप्रास लच्छन जथा- एक सबद बहु बार जाँ, सो 'लाटानुप्रास'। तातपर्ज ते होत है, औरें अर्थ प्रकास ॥ वि०-"जहाँ एक-ही शब्द तात्पर्य-सहित अनेक बार पाकर भिन्न-भिन्न अर्थों का प्रकाश करे वहाँ 'दासजी' ने 'लाटानुप्रास' कहा है। ___ मम्मटाचार्य ने 'काव्य-प्रकाश' (संस्कृत-रीति ग्रंथ) में -- "शाब्दस्तु लाटा- नुप्रासो भेदे तात्पर्य मात्रतः" (१,८१) अर्थात् , जहाँ शब्द वा उसके अर्थ के अभिन्न होने पर भी तात्पर्य मात्र के कारण भेद रहता है, वहाँ शब्द-गत अनुप्रास-'लाट' होना कहा है। यहाँ शब्द और अर्थ दोनों की श्रावृति में तात्पर्य की भिन्नता मानी जाती है। इस अलंकार में शब्द और अर्थ दोनों की । पुनरुक्ति होते हुए भी तात्पर्य में भिन्नता रहती है। यह भिन्नता अन्वय के भेद से मानी जाती है । संस्कृत-साहित्य में इसके 'शब्दानुप्रास' वा 'पदानुप्रास' नाम भी मिलते हैं । साहित्य-दर्पणकार कहते हैं- "शब्दार्थयो पोनरुक्त यं भेदे तात्पर्य मात्रतः ।" काव्य-प्रकरश में लाट को-"तदेवं पंचधा मतः" कहा है, अर्थात्-एक पद का, अनेक पदों का, एक समासगत, भिन्न समासगत तथा समास और असमास दोनों में माना जाता है। ये पाँचों प्रकार दो भागों-'पद की श्रावृत्ति' और नाम अर्थात् , विभक्ति रहित प्रतिपादक श्रावृत्ति में भी रखा जा सकता है । यमकालंकार में ऐसे ही शब्दों वा पदों की श्रावृत्ति होती है, पर वहां जिन शब्दों की श्रावृत्ति होती है उनके अर्थों में भिन्नता होती है, यहाँ (लाट में ) तात्पर्य की । अथ लाट-अनुप्रास को उदाहरन जथा- मन-मृगया करि मृग-गी, मृग-मद-बेंदी भाल । मृग-पति-लंक मृगांक-मुख, अंक लिऐं मृग-बाल ।। पुनः उदाहरन जथा- श्रोमॅनमोहन प्रॉन हैं मेरे, श्रीमॅनमोहन माँन हैं मेरे। श्रोमॅनमोहन ग्याँन हैं मेरे, श्रीमनमोहन ध्यान हैं मेरे ।। पा.--१. (३०) तन तारि तकै तरपै...। २. (३०) बड़ो ... ३. ( का० ) जो,.... (३०)गौ....
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