५४६ काव्य-निर्णय तृतीय अंतबर्न एक की अनेकबार श्रावृत्ति को उदाहरन- बैठी मलीन अली अबली किधों' कंज-कलीन सों वै विफली है। संभु-गली' बिछुरी-ही चलो, किधों नाग'-लली अनुराग • रली है। तेरी अली ये रोंमाबली, सिंगार - लता • फल बेली' फली है। नाभि - थली सों जुरे फल ले. भली रसराज - नली उछली है. चतुर्थ अंतबर्न अनेक की अनेकबार श्रावृत्ति को उदाहरन- कहै कसन' गरमी-बसन, काहू बसन सुहात । सीत - सताएं रीति पति, कति कंपति तो गात ।। वि०-"दासजी कृत वृत्यानुप्रास के ये चार प्रकार और उनके उदाहरण स्तुत्य हैं। अनेकों ने इन उदाहरणों को अपनाया है और अपने-अपने ग्रथों की शोमा में चार-चांद लगाये हैं। उन सबों में सेठ कन्हैयालाल पोद्दार (अलंकार- मंजरी, पृ० ३६८ ) का अभिमत, जो उन्होंने वृत्यानुप्रास के तीसरे उदाहरण (अंतवर्ण की अनेकवार श्रावृति ) के प्रति व्यक्त किया है, उसे यहां देते हैं। अस्तु, श्रापका इस छंद (सवैया) के प्रति कहना है कि 'यहाँ मलींन, अलो, अबली और कलोन इत्यादि के प्रयोगों द्वारा अनुप्रास शब्दालंकार तथा रोमा- वली में भ्रमरावली आदि अनेक संदेह किये जाने के कारण संदेह अर्थालंकार है। ये दोनों अलंकार यहाँ प्रधान हैं, और दोनों ही में समान चमत्कार है, अतः यहाँ शब्दार्थ उमयालंकार है। अथ वृत्ति औ उनके भेद-लच्छन बरनन जथा- मिले बर्न माधुर्ज के 'उपनागरिका' नृत्तिः । 'परुषा',भोज, प्रसाद के, मिलें 'कोमला'-वृत्ति"॥ पा०-१. (१० नि०)(न० सि० ह०) कि सरोज...। २. (३०) (०नि०) (भं० म०) है.... ३. ( नि०) लगी...। ४.(न० सि० ह०) राग लली.... ५. (का०) कि...! (३०)(प्र.)(म०म०) की, । (V० नि० ) ( न० सि०६०) कै... ६. (का० ) (३०)(प्र.) ( नि०) बेलि...। ( न० सि० ह. ) फैल.... ७.(प्र०)(अं०- मं०) पै.... ( नि०)(न० सि० ह.) (सं० पु० प्र०) ते... .(का०) (०) (प्र.) (शृ० नि०) (० म० ) लै कि...। (न० सि० ह०) देक...18. (का०) (प्र०) कसन.... १०. (का०) नित्त ..। (३०) वृत्ति । (प्र. ) नित्ति । ११. (का०) (प्र.) (३०) वृत्ति।
- , शृगार-निर्णय (भि० दा०) पृ० १२, ३८ । नखसिख हजारा (मु०) १० ४६,
७। भलकार-मंजरी (पो०) १०३६।