५४२ काव्य-निर्णय अथ अनुप्रास बरनन जथा-- रसन' विभूषित करन कों, गुन-बरनें सुख-दॉनि । गुन - भूषन अनुमाँनि के, अनुप्रास उर भाँनि ॥ बचॅन आदि के अंत जह मच्छर की आवृत्ति । अनुप्रास सो जाँनि द्वै-भेद छेक औ बृत्ति ।। वि.-"गुण-कथन के बाद दासजी ने 'अनुप्रास' का वर्णन किया । ये अनुप्रास नव-रसों को विभूषित करने वाले माधुर्यादि गुणों के भूषण कहे हैं, जो काव्य-प्रयुक्त शन्दों में श्रादि-अंत के अक्षरों की श्रावृत्ति से बनते हैं। दासजो ने प्रथम अनुप्रास को दो प्रकार का-'छेक' और 'वृत्ति' रूप में माना है। अनुप्रास का शब्दार्थ है-“शब्द को बारंबार चमत्कार युक्त रखना, (अनु+प्र+श्रास)। इसलिए इसका नाम 'अनुप्रास' कहा जाता है । संस्कृत- काव्य-प्रकाश में मम्मटाचार्य ने-"वर्णों की-अक्षरों की, समता को अनुप्रास कहा है" (वर्णसाम्यमतुप्रासः)। साथ ही आपने प्रथम-"छेकवृत्तिगतो द्विधा" कहते हुए - छेक और वृत्ति का विवरण देते हुए कहा है कि "छेक शब्द का अर्थ है विदग्ध-चतुर और वृत्ति का अर्थ है-रस-विषयक वर्गों की नियत रूप से योजना-उनका व्यापार | तात्पर्य यह कि स्वरों की विभिन्न मात्रात्रों के होने पर भी यदि अक्षरों में परस्पर समता हो तो अनुप्रास रूप शब्दालंकार होगा। अनु- प्रास में वर्णनीय रसादि के अनुकूल वर्णों की चमत्कारपूर्ण योजना श्रावश्यक है। अनुप्रास के संस्कृत-मन्य प्राचार्यों ने प्रथम "वर्णानुमास" (निरर्थक वर्णा की श्रावृत्ति) और "शब्दानुप्रास" ( सार्थक वर्षों की श्रावृत्ति ) दो भेद माने हैं। शब्दानुप्रास को "लाटानुप्रास" भीव हाँ कहा गया है। इनके उपरांत इन श्राचार्यों ने वर्णानुप्रास के छेक और धृत्ति, तथा वृत्यानुप्रास की तीन-उपना- गरिका, पौरुषा और कोमला वृत्तियाँ तथा शन्दानुप्रास की 'पदा' और 'नामा- वृत्तियों का उल्लेख किया है। श्री हेमचंद्र ने भी कान्यानुशासन (पृ० २०६) में अनुप्रास को- "प्रकृप्टेऽदूरांतरितो न्यासोऽनुप्रासा" कहा है। साहित्य-दर्पण में अनुप्रास के पा०-१. ( का० )(३०) (प्र०) रस के भूषित करन ते...। २. (सं० पु० प्र०) ऐ अनुप्रास सो जांनि । ३. (सं० पु०प्र०) ही....
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