काव्य-निर्णय अर्थ में एकार्थ होते हुए भी कुछ उनसे विशेषता प्रदर्शित हो, जैसा-"श्राइ हैं, छाइहैं, जाइहैं, तथा पाइहैं" को श्रावृत्ति से जाना जाता है । प्रथम उदाहरण में भी यही बात है, वहाँ भी-"बँनि, गॅनि, धुनि और "सैनि" एक नयी शब्दार्थ रुचिरता-लिये कई बार प्रयुक्त हुए हैं।" ____दासजी के इस सवैये को-एक सोचनीय पाठ-भेद के साथ श्री भारतेंदु ने अपने "सुदरी-तिलक" (पृ० १८०१, छं सं० ५८४ ) में और पं० नकछेदी तिवारी 'अजान कवि' ने अपनी “मनोज मंजरी” (पृ० ६१, छं० सं० २२७ द्वि० भाग) में “परकीया प्रोषितपतिका" के उदाहरण में संग्रहीत किया है। सोच- नीय पाठ चतुर्थ-चरण का-'अबलोकि गुपाल हिं 'दास जू' ए, अँखियाँ सुख पाइ हैं'... है, जब कि 'कवि-नाम' इस सवैया के प्रथम चरण में आ चुका है। अथ पुनः माधुरजादि गँन कथन जथा- माधुर, ओज', प्रसाद के, सब गुन हैं आधीन । ताते इनहीं को गन्यों मंमट सुकबि प्रबीन ॥ अथ माधुर्ज गँन बिसेसता जथा- स्लेषौ मध्य समास को समता, कांति बिचार । लीने गुंन माधुर्ज-जुत' करुनौं, हास, सिंगार ॥ अथ श्रोज न बिसेसता जथा- स्लेष, समाधि, उदारता, सिथिल भोज-गुन रीति । बोर', भयानक, रुद्र औ रस बिभत्स सों प्रीति ॥ अथ प्रसाद गुँन बिसेसता जथा- अल्प सँमास, समास-बिन, अर्थ - ब्यक्त [न-मूल । सो प्रसाद-गुन बरन सब, सब [न, सब रस तूल ॥ वि०-"दासजी ने इन चार दोहों में पूर्व कथित दश गुण वर्णन के बाद इनमें नव रसों का समाहार करते हुए, फिर इन्हें संस्कृत के धुरंधर श्राचार्य मम्मट के अनुसार तीन गुण -माधुर्य, अोज और प्रसाद के अंतर्गत कथन किया है, क्योंकि ये सभी गुण माधुर्य-श्रोज-प्रसादादि के ही श्राधीन है-इन्हीं तीनों में इनका समाहार हो जाता है, जैसा इन दोहों से लक्षित है..." पा०-१.(का०) () (प्र०) (स० पु० प्र०) माधुयोज...। २.(३०) लीन्हों...! ३. (सं० ५० प्र०) रस...1४. (का० ) (३०)(प्र०) रुद्र, भयानक वीर अरु...। ५.. ( पु. ) पुनि, सबस, सब गुन पूल । गार-सतिका-सौरम ( म०प्र०) ५० २७० ।
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