काव्य-निर्णय ५३६ 'दास' भई चिकुरारिन को', चटकीलता चामर चार ते चौ गुनीं। नौ [नी नीरज ते मृदुता, सुखमा मुख में ससि ते भई सौ गुनी ॥ अथ स्लेस गुन लच्छन जथा-- बहु सबन को एक करि', कीजै जहाँ सँमास । ता अधिकाई 'स्लेस-गुन', गुरु, मध्यम, लघु 'दास' । वि०-"दासजी जहाँ बहुत शब्दों के अर्थ को (बिविध अर्थों को) समझने के लिए उन्हें एक सूत्र में प्राबद्ध करते हुए 'समास' की जाय, उसको अधिकता दिखलायी जाय, वहाँ "श्लेप-गुण" मानते हैं-जो गुरु, मध्यम और लघु नाम से तीन प्रकार का होता है। "गुणों की महत्ता मानने वाले श्री वामनाचार्यजी ने अपने काव्यालंकार-सूत्र- वृत्ति में 'श्लेष-गुण' को -"मसूणत्वं-रलेपः (मसृणत्व-शब्द-निष्ठ चिकनापन श्लेष)। अर्थात् , जिस काव्य के अनेक अलग-अलग पद हों-वे सामासिक न हों और पढ़ते समय वे सब एक पद के समान प्रतीत हों, वहाँ 'श्लेष-गुण' कहा है।" चंद्रालोककार ने "जहाँ समूह रूप में सजातीय वर्गों का प्रयोग भाजाय वहाँ 'श्लेष गुण' माना है । साहित्य-दर्पण-कर्ता इसे 'गुण' नहीं मानते, वे कहते हैं कि "श्लेप, समाधि, औदार्य, प्रसादादि जो शब्द-गुण प्राचीन श्राचार्यों ने माने हैं, वे सब 'श्रोज-गुण' के अंतर्गत समाहित हो जाते हैं. क्योंकि 'यहाँ 'प्रोज' पद लक्षणा से शब्द के धर्म विशेष को व्यक्त करता है", इसलिये वे उसे स्वीकार नहीं करते, फिर भी उन्होंने श्लेप का लक्षण-"श्लेषो यहूनामपि- पदानामेकपदवद्भासनात्मा" (अनेक पदों का एक पद के समान भासित होना) कहा है । आगे फिर आप कहते हैं कि "श्लेष केवल विचित्रता है। यह रस का विशिष्ट उपकारक न होने के कारण इसे गुण नहीं मानना चाहिये, क्योंकि श्लेष- क्रम (क्रियात्रों की पर परा), कौटिल्य (चतुर-चेष्टा), अनुल्वणत्व (अप्रसिद्ध वर्णन का न करना ) और उपपत्ति (कार्य-सिद्ध करनेवाली उक्तियां) आदि से संबद्ध है अतएव जहाँ इन सबका समन्वय हो वहाँ श्लेष...। इसलिये यह वैचित्यमात्र है, वह रस का असाधारण उपकारकत्त्व जो अतिशय गुणत्त्व का प्रयोजक है, इसमें नहीं है । इसलिए यह गुण भी नहीं है, इत्यादि..." । पा०-१. (१० नि०) में...। २. (३०) (प्र०) कै...!
- श्रृंगार-निर्णय (भि० दा०) पृ० ५५, ६३ । आगत-पनिका ।