५३८ काव्य-निर्णय हो माना है। ऐसी स्थिति में इन दोनों अर्थों के प्रयोग में "समाधि" असाधारण शोभा का अाधायक नहीं और इस लिये वह गुण-विशेष भी नहीं। वह तो काव्य के शरीर-भूत अर्थ-मात्र का साधक है। जैसे-चंद्र पद के अर्थ को व्यक्त करने के लिये "अत्रि के नेत्र से उत्पन्न ज्योति" जैसा लंबा वाक्य कहा जाता है-बोला जाता है और कहीं "उष्णकाले भवेत् शीतंशीतकाले च उष्ण- वत सुकुमार शरीर वाली वाला" इतना बड़ा वाक्यार्थ बोलने के बजाय एक पद, -केवल एक पद "वरवर्णिनी" हो कह दिया जाता है । साथ-ही कहीं एक-ही वाक्यार्थ की विविध विशेषताएँ दिखलाकर अनेक वाक्यों से कहा जाता है। इस प्रकार न्यास (अर्थ का फैलाव) और कहीं अनेक वाक्यों के प्रतिपाद्य अर्थ को एक ही वाक्य से कहने में समास किया जाता है। अस्तु ये दोनों (व्यास- समास) और इनके सदृश अन्य प्राचीन-संमत विशेषताएँ गुण नहीं कही जा सकतीं । यह तो केवल विचित्रता है, जिसके प्रधान उपकारक गुण नहीं।" समाधि गुण का लक्षण चंद्रालोक-कर्ता श्री पीयूषवर्षी जयदेव बड़ा सुदर कहते हैं, जैसे- "समाधिरर्थ महिमा लसद्घनरसात्मना । स्यादतर्विशता येन गात्रमकुरितं सताम् ॥" अर्थात् "जिन गहरी रसमयी उक्तियों (जिस वाक्य में रस के अति फुहारे छूटते हो) को सुन कर समझदारों और अलंकारिको के हृदय गद्गद होने से उनके शरीर पर श्रानंद के अंकुर उठने लगते हैं, ऐसे अर्थ-महिमान्वित गुण को "समाधि" कहते हैं। समाधि गँन उदाहरन जथा- बर तरुनिन' के बेन सुनि, चीनी चकित सुभाइ । दुखित दाख, मिसरी मुरी, सुधा रही सकुचाइ ।। अस्य तिलक "इहाँ बर ( श्रेष्ठ ) तरुनीन (सुंदरियों ) के बेन ( वचनों ) को क्रम ते अधिक ते अधिक मोंठो कयौ, ताते "समाधि गुन" है।" पुनः उदाहरन जथा- भाँवतो आवत'-ही सुनि के, उड़ि ऐसी गई तँन' छाँमता जौ गनीं । कंचुकी हू में नहीं मढ़तो, बढ़ती कुच की अब वो भई छौ गनी ।। पा०-१. ( का० ) (३०) (प्र.).. तरुनी के...। २. (३०) आवती-ही ..। ३. (वे. ) ( स० पु० प्र०) (शृ० नि०) हद...। (प्र०) मन ! ४. (वे. ) ( स० पु० प्र०) कंचुकि...। ५.(सं० पु० प्र०) सो...!
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