पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५७१

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काव्य-निर्णय भूत ( यह शन्द-गुण) अर्थ व्यक्ति है । अतएव जहाँ सुनते ही स्पष्ट रूप से अर्थ की प्रतीति होती हो वहाँ उक्त गुण माना जाता है । इस अर्थ-व्यक्ति गुण के अभाव में-असाधुत्त्व, अप्रतीतत्त्व, अनर्थकत्व, अन्यार्थत्त्व, नेयार्थत्व, यति- भृष्टत्त्व, क्लिष्टत्त्व, संदिग्धत्त्व तथा अप्रयुक्तत्व श्रादि दोपों की संभावना हो जाती है, यह गुण-प्रधान मानने वाले श्राचार्यों का मतव्य है। साहित्य-दर्पणकार श्री चक्रवर्ती भी यही कहते हैं- "अर्थ व्यक्तः प्रसादाख्यगुणेनैव परिग्रहः । अर्थव्यक्तिः पदानां हि मटित्यर्थसमर्पणम् ॥" -साहित्य-दर्पण ८, ११.१२ शब्दों का बिना-प्रयास अर्थ-व्यक्त करना उक्त गुण का धर्म है। साथ-ही श्रापका कथन है-"अस्तु, यह गुण पूर्वोक्त "प्रसाद-गुग" अर्थात् उसके व्यंजक शब्दों के ही अंतर्गत होने के कारण इसे पृथक् मानने की आवश्यकता नहीं।" अस्य उदाहरन जथा- इक टक हरि राधे - लखें, राधे हरि की ओर' । दोऊ आँनन इंदु औ' चारथों नेन चकोर ॥ अथ समाधि गुन लच्छन जथा- जुहे रोह-अवरोह-गति, रुचिर भाँति म पाइ। तिहिं 'समाधि-गन' कहत हैं, ज्यों भूपन परजाइ॥ वि०--"दासजी कहते हैं जिस काव्य में 'पर्याय-अलंकार' की भांति श्रारोह-अवरोह की गति में सुंदर रीति से क्रम पाया जाय वहाँ "समाधि गुण" जानना चाहिये। दासजी का यह लक्षण वामनाचार्य के इस--"प्रारोहावरोह निमित्तं समाधि- राख्यते" (पारोह-अवरोह का निमित्त ही 'समाधि गुण' है) कथनानुसार है। परंतु इस सूत्र की व्याख्या में व्याख्याकार का कहना है--"यहाँ समाधि गुण के लक्षण में जो प्रारोह-अवरोह का क्रम कहा है, उसकी "गौणीवृत्ति (लक्षणा) से (निमित्त अर्थ-परक मान इस लक्षण-सूत्र को ) व्याख्या करनी चाहिये, यथा- "मारोहावरोहक्रमः समाधिरिति गौण्यावृत्त्या व्याख्येयम् ।" पा०-१.(३०) वोर । २.(३०) दुवौ...। (सं० पु० प्र०) (३०) भाइ। दुवै...। ३.