पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५७

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काव्य-निर्णय सुद्ध लच्छना-भेद 'दोहा' जथा- 'उपादान' इक सुद्ध में दूजी 'लच्छिन" ठाँन । तीजी 'सारोपा कहें, चौथी 'साध्यवसॉन' || वि०-"शुद्धा-भेद, यथा-"उपादान-लक्षणा, क्षणल-लक्षणा, सारोपा-लक्षणा और साध्यवसाना-लक्षणा । कोई-कोई इन्हें-"श्रव्हत्स्वार्था, जहत्स्वार्था, सारोपा तथा साध्यवसाना भी कहते हैं।" प्रथम उपादान लच्छना-लच्छिन 'दोहा' जथा- उपादाँन सो लच्छनाँ, पर-गुन लीने होइ । कुंत-चलत सब कोउ' कहें, फर-बिन चलत न सोइ । वि०-"अपने अर्थ की सिद्धि के लिये जब दूसरे अर्थ का आक्षेप किया जाय, अर्थात् प्रयोजनीय अर्थ को प्राप्ति के लिये मुख्यार्थ को न छोड़ते हुए किसी दूसरे अर्थ को ग्रहण किया जाय, जैसे इस दोहे के अर्ध भाग रूप उदाहरण में-"कुत चलत सब कोउ कहें...", "अर्थात् कुत ( भाले ) चलते सब कोई कहते हैं, पर किसी योग-मनुष्य के चलाने पर हो वे चलते है, इत्यादि..." उपादन-लच्छना उदाहरन अन्य 'दोहा' जथा- जमुना-जल कों जाति-ही. डगरी गगरी जाल । बजी बाँसुरी काँन्ह की, गिरी सकल ततकाल पुनः उदाहरन 'दोहा' जथा- खेलत ब्रज होरी सजे, बाजे बजे रसाल । पिचकारी चालति घनीं, जहँ-तह उड़त गुलाल ॥x अस्य तिलक गागरि (गगरी) मापु सों नाहि जाति, कोऊ प्रौनी वाकों लिएँ जाइ तब जाति है, ऐसे मुख्यार्थ बोध (बाघ) ते 'उपादान लच्छना होति है, सो दोऊ दोहान के प्रति बाक्यन में उदाहरन है। पा०-१. (प्र०) उपादान इक जानिएँ,...| २. (प्र०) लच्छित...। ३. (का०प्र०) अहै,...| ४. (प्र०) (३०)जग...। ५. (प्र०) (३०) (सं०प्र०) तिहिं काल । ६ (प्र०) (३०) चलती...।

  • . का० प्र० (भानु) पृ० ७३ । का० प्र० (भानु) पृ० ७३ । व्यं० म० (ला० भ०),

१०१२। न्य० म० ( ला० भ० ) पृ० १३ | ४ व्यं० म० ( ला० भ०) पृ० १३ ।