पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५६९

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१३४ काव्य-निर्णय कोन्हों कॉम अद्भुत मन मरदोंने इहि, कहाँ ते कहाँ लों' ल्यायौ कैसी-कैसी डैहरें। वेई स्याँम-अलके छैहैरि रहीं 'दास' मेरे- दिल की दिली में है जहाँ-ई-तहाँ नहरें ।। अथ कांति [न लच्छन जथा- रुचिर-रुचिर बातें परें, अरथ न प्रघट, न गूढ । ग्राम्य-रहित सो 'कांति-गुन', समझ सुमति, न मूढ ॥ वि०-"जहाँ रुचिर से रुचिर शब्दों का अर्थ न तो इतना प्रकट ही हो जिसे मढ़ (नर) झट समझलें और न इतना गूढ हो हो कि सुमति जनों को भी समझने में देर लगे-ऐसी ग्राम्य-दोष-रहित रचना में कांति-गुण" होता है, क्योंकि ग्राम्य-दोष-रहित कांति-गुण-संपन्न वाक्यों की बहार कुछ और ही होती है। श्रीवामन ने अपने "काव्यालंकार-सूत्र' में 'कांति-गुण' के लिये-"दीप्त रसत्वं कांतिः" (३, २, १५) कहा है, अर्थात्--जहाँ शृगारादि रस दीप्त हो--अनायास-ही समझ में आ जाय, वहाँ उक्त ( कांति ) गुण होता है । अस्तु, वामनोक्त उक्त गुण को चंद्रालोक-कर्ता ने शृगार और प्रसाद में समाजाने के कारण पृथक् वर्णन नहीं किया है, यथा- "शृंगारे च प्रसादे च कांत्यर्थव्यक्तिसंग्रहः । अमी दशगुणाः काव्ये पुसि शौर्यादयो यथा ॥" चंद्रालोक ४११० कांति गुँन उदाहरन जथा- पद पाँनन कंचन-चूरा जराउ-जरे मॅनि-लालँन सोभ-धरें। चिकुरारी मनोहर, झीनों झगा, पैहरे मँनि-आँगन में बिहरें। 2 मूरति ध्यान में लावन कों, सुर, सिद्ध-समूहन साध मरें। बड़-भागिनी गोपी मयंक मुखी, अपनी-अपनी दिसि अंक-भरें। पा०-१. (का० )(३०)(प्र०) को...। २. ( का०) (३०) (प्र.) करै...। ३. ( का० ) अर्थन प्रघटत गूढ । (३०) अर्थन प्रघटन...। (प्र. ) अर्थ न प्रघटन...! ४. ( का०) पग...। (३०) पगु-पाणि न कंचन...। ५. ( का० ) (३०)(प्र०) चूरे...। (सं० पु० प्र०) चूरो...। ६. ( का०) (३०) (प्र.) (सं० पु० प्र०) चिकुरारि मनोहर झीन । ७.( का० ) (३०) (प्र०)(सं० पु० प्र०) आनन...। . (का०) (३०)(प्र.)(सं० पु० प्र०) बड़-मागिनि...

  • रस-सारांस (मि० दा० ) ३० ३१ ।