पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५६७

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५३२ काव्य-निर्णय प्रसाद गुण का संबंध चित्त को विकास–प्रसन्न करने वाली वृत्ति से है, इसलिये यह जहाँ कर्ण-कटु शब्दों और दीर्घ ( बड़ी-बड़ी) समासों को दूर-से ही नमस्कार करती हुई सरल-सुबोध भाषा में काव्य-रचना को उक्त गुण-पूर्ण कहा गया है। अर्थात्, शब्द सुनते ही जिसका अर्थ प्रतीत हो जाय, ऐसे सरल तथा सुबोध पद इस गुण के व्यंजक कहे जाते हैं। ___काव्य-प्रकाश के लक्षण में "अग्नि-जल" शब्द अोज और माधुर्य गुण के द्योतक हैं । इन दोनों शब्दों का तात्पर्य, प्रसाद गुण का नवरसों के साथ अटूट संबंध बतलाता है, अर्थात इसका प्रयोग बिना किसी 'नू-निच' के सभी रसेां में किया जा सकता है । इसलिये प्रमाद गुण शृगार की भाँति गुणों का राजा माना जाता है, यथा- "समर्पकत्वं काव्यस्य यत्तु सर्वरसान्प्रति । स सादो गुणोज्ञेयः सर्वसाधारणक्रियः ॥" -ध्वन्यालोक पृ०-१३८ माधुर्य-प्रोज-प्रसादादि गुण क्रमशः चित्त की द्रति, दीप्ति और व्यापकत्व के रूप हैं, फिर भी 'प्रसाद' में चित्त की निर्मलता – समरसता की स्थिति अधिक है, जो सब रसों के अास्वादन के लिये अनिवार्य है। जब तक मन निर्मल वा समरस न होगा, तब तक रसानुभूति कदापि संभव नहीं। कामातुर शृगार का श्रास्वा- दन नहीं कर सकता, भयभीत मन भयानक रस की प्रतीति करने में असमर्थ रहेगा, ऋद्ध या शोक-विह्वल चित्त रौद्र और करुण का आनंद नहीं पा सकता । अस्तु, चित्त की इसी निर्मलता के लिये आनंदवर्धन-श्राचार्य ने उसे समर्पकत्व, या व्यापकत्व कहा है और इसी के आधार पर 'प्रसाद' गुण शब्दार्थ को स्वच्छता रूप से ग्रहण किया है यथा-"प्रसादस्तु स्वच्छता शब्दार्थयोः।" जैसा कि अभी लिखा है कि प्रसाद का अर्थ-ही शब्द और अर्थ की स्वच्छता है, जो सब रसों का साधारण गुण है तथा सब रचनात्रों में समान रूप से रहता है । फिर चाहे वह रचना शब्द-गत हो, अर्थ-गत हो, समस्त हो या असमस्त हो, मुख्य रूपेण व्यंग्यार्थ की अपेक्षा से-व्यंग्यार्थ के संपर्क से ही स्थित होता है। क्योंकि गुण मुख्यतया प्रतिपत्ता से प्रास्वादमय होते हैं, इसके बाद रस में उप- चरित और उसके बाद उनका लक्षण से शब्दार्थ (शब्द और अर्थ) में व्यवहार होता है । इस कारण-ही साहित्य-दर्पणकार ने प्रसाद का लक्षण- "चित याप्नोति यः प्रिं शुष्कन्धनमिवाना। स प्रसादः समेस्तेषु रसेषु - रचनासु " किया है।"