पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५६६

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काव्य-निर्णय संस्कृत में इसका लक्षण-जिसके श्रवण से मन में उरोजना उत्पन्न होती हो वह श्रोज-गुण कहा है । श्रोज का संबंध चित्त की उत्तेजना वृत्ति से है, इस लिये जिन शब्दों-वाक्य-विन्यासों के सुनने वा पढ़ने से, सुनने वा पढ़ने वाले के हृदय उरोजना-पूर्ण हो जाय, तब यह गुण कहा जाता है। _____ोज में कवर्गादि के प्रथम और तृतीय वर्णों का दूसरे और चौथे वर्णों के साथ क्रमशः योग, अर्थात् क, च का ख, छ से, ग, ज, का ध, झ से संयोग, अर्ध-रकार-युक्त शब्द जैसे - अर्थ, निद्रादि और टवर्ग के अक्षरों (ट, ट, ड, ढ) की बहुलता, लंबे समास तथा कठोर वर्गों को रचनादि अोज गुण व्यक्त करते हैं। प्राचार्य मम्मट ने इसका लक्षण-"दीप्त्यात्मविस्तृतेहेतुरोजो..." (चित्त को भड़का देने वाला) माना है । चंद्रालोककार इसका लक्षण द्वितीय प्रकार से मानते हैं, यथा- ____ "भोजः स्यात्प्रोटिरर्थस्य संपो वाऽति भूयसः।" अर्थात् , संक्षेप में वा विस्तार के साथ जो प्रौढ भावों के अर्थ व्यक्त करे वहाँ यह गुण मानन चाहिये ।" अस्य उदाहरन जथा- पिस्ट-ठट्ट, गज'-घटॅन के, जुथ्थप उठे बरकि। पट्टत महि घन कट्ट सिर, क्रुद्धत खग्ग सरकि ।।* अथ प्रसाद गुन लच्छन जथा- मँन-रोचक अच्छर परें, सो है सिथिल-सरीर । गुन 'प्रसाद' जल-सूकि ज्यों, प्रघटै प्ररथ-गभीर॥ वि.-"दासजी ने प्रसाद गुण वहाँ माना है, जहाँ मन को भाने वाले सिथिल शरीर अक्षर हों और मोती (अथवा वस्त्र में जल) की भांति स्वच्छ गंभीर अर्थ प्रकट करें। ___सूखे ईधन में अग्नि और स्वच्छ वस्त्र में जल की भाँति जो गुण-तत्काल चित्त में छा जाय, उसे प्रसाद गुण कहा जाता है, यथा- शुष्कन्धनाग्निवत्स्वच्छजलवत्सहसैव यः। म्यामोत्पन्यत्प्रसादोऽसौ सर्वत्र विहितस्थितिः॥" -काव्य-प्रकाश, ८, ७० (६४ सूत्र) पा०-१. (३०)(का०प्र०) गब्बरनि की। (प्र.) प्रिष्टप ठट गज-घटन के ।

  • का० प्र० ( भा०) पृ० १३३ ।