५१८ काव्य-निर्णय अथ दीपक-अलंकार लच्छन जथा- एक सबद बहु में लगे, 'दीपक' जॉनों' सोह। वहे सबद फिरि-फिरि फरें', आवृति-दीपक होइ॥ वि.-"दासजी ने इस दोहे में-'दीपक' और उसका द्वितीय भेद "श्रावृत्ति दीपक का वर्णन किया है लक्षण लिखा है । अत व 'दीपक' अलंकार वहाँ श्रापने माना है, जहाँ एक शब्द बहुतों (अनेकों ) में लगे । इसी प्रकार 'श्रावृत्ति दीपक' वहाँ, जहाँ वही एक शब्द बार-बार आये। संस्कृत-अलंकार मंथों में दासजी कृत यह परिभाषा-दीपक का लक्षण नहीं माना गया है । वहाँ- "सकृवृत्तिस्तु धर्मस्य प्रकृताप्रकृतात्मनां । सैव क्रियास्तु बहीषु कारकस्येति दीपकं ॥" अर्थात् "प्रकृत (उपमेय) और अप्रकृत ( उपमान ) इन दोनों के जो क्रिया- दिक धर्म हैं, उनका एक ही बार में कथन करने को-प्रस्तुताप्रस्तुत के एक धर्म कहने को, 'दीपक' और जहाँ दीपकालंकार की श्रावृत्ति हो, वा की गयी हो, वहाँ "श्रावृत्ति दीपक" अलंकार कहते हैं, यथा- "आवृत्ते दीपकपदे भवेदावृत्तिदीपकम् ॥" --चंद्रालोक दीपक-अलंकार दीपक-न्यायानुसार है। जैसे एक स्थान पर रखा हुश्रा दीपक विविध वस्तुओं को (बाहर-भीतर ) प्रकाशित करता है, उसी भाँति यहाँ अलंकार रूप में गुणात्मक वा क्रियात्मक धर्म से प्रस्तुत-अप्रस्तुत दोनों के स्वरूपों को प्रकाशित करता है। अतएव इसी आधार पर 'भरत मुनि' तथा भामह-आदि अलंकाराचार्यों ने इसके आदि, मध्य और अंत रूप से तोन भेदों का उल्लेख किया है। जहाँ आदि में धर्म का कथन किया जाय वहाँ श्रादि, जहाँ मध्य में धर्म का कथन किया जाय वहाँ 'मध्य और जहां अंत में धर्म-कथन किया जाय वहां अंत-धर्मा दीपक कहा जाता है, यथा-उपमानोपमेय वाक्येष्वेका किमा दीपकं। सत्वैविध्य, भादिमध्यांतगक्यवृत्तिभेदात्-वामन, का० सू. १३८ । श्रावृत्ति दीपक में भी यही बात है। वहाँ भी पूर्व-कथित प्रकार से अनेक वस्तुत्रों को स्पष्ट देखने-दिखाने के लिये प्रत्येक वस्तु के पास दीपक के प्रकाश की आवश्यकता प्रतीत होती है, उसी दीपक न्याय के अनुसार श्रावृत्ति दीपक में भी एक क्रिया से अनेक पद, अर्थ और पद-अर्ग तीनों प्रकाशित किये जाते है, पा०-१. (का०) (०) (१०) जाँने । २ (का०) (३०) (५०) परे।
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