काव्य-निर्णय ५१५ वि० -"दासजी कृत ये दोनों उदाहरण "अनेक में एक और एक में अनेक" द्वि-विध पर्याय के हैं। प्रथम पर्याय (अनेक का एक में श्राश्रय) जो संस्कृत-अलंकाराचार्यों की मान्यता से द्वितीय है, का उदाहरण चिंतामणिजी ने इस प्रकार दिया है- "छाँदि दई तँनता जु नितै, पहि ताकों कहाँ सेबन वह लाग्यो। पाँइन चचलता-जुत जो, अवसा पर नेन जुगै अनुराग्यौ । मंद-सुभाब लियौ गति जो, मग-लोचनी की मति को तजि भाग्यो। भगन के गुन को बदलौ करि के तिय के तँन जोबन जाग्यौ ॥" अथवा 'लच्छीराम' कृत उदाहरण, यथा- "बालपनों नब जोबन-जोग, नबेली के पाहन की चपलाई। आँनि बसी बर लोचन - बीचि में, बंक - बिलोकनि की रुचिराई ॥ मंदता माँनस की 'लछिराँम', भरी गति में प्रति-ही गहमाई। मोहन को मन मोहै लगी, उमगी अधराधर में मधुराई ॥" और एक में अनेक के आश्रय रूप द्वितीय पर्याय का उदाहरण 'रघुनाथ' कवि कृत इस प्रकार है- "बंसीवट - तर नटवर - भेख धरें, ठाढ़े- दिखात सोई जसुमति के दुलारे हैं। गोधन - चरैया एई, चीर के हरैया एई, - गुंजन - धरैया एई कुजन - बिहारे हैं। एई मन - चोर, एई माखन के चोर, एई- - रघुनाथ' गोपिन के भाँखिन के तारे हैं। एई पीत - पटवारे, एई हैं मुकटबारे, ब्रज में सुनति हो सो एई काँन्ह कारे है।" अथ सकोच परजाइ (पर्याय) को उदाहरन जथा- राबरौ पयाँन सुंनि सूखि गई पैहलें - ही, (नि' भई बिरह-बिथा ते तन-आधी-सी। "दास के दयाल माँस-बीतिबे में छिन-छन, छीन - परिबे की रीति' राधे अबराधी-सी॥ पा०-१. (प्र०) मई पुनि विरह...। २. (का० ) (प्र०) को ( को )...I (३०) की...। ३. (सं० पु०प्र०) की राधे रीति . ।
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