२० काव्य-निर्णय ____अर्थात् जहाँ वाच्यार्थ ग्रहण करने में बाधा होने पर किसी रूढि वा प्रयोजन के वश मुख्य अर्थ से संबंधित अन्य अर्थ को आरोपित कर 'बाधा दूर कर दी जाय तो वहां लक्षणा का व्यापार समझना चाहिये।" रूढ़ि लच्छना-लच्छन 'दोहा' जथा-- मुख्य परथ में बाध पै, जग में बचन प्रसिद्ध । 'रूदिलच्छना' कहति हैं, ता कों' सुमति समृद्ध । वि०-"जहां केवल रूढ़ि, अर्थात् लोगों के प्रयोग-बाहुल्य वा लोक-प्रसिद्धि के कारण मुख्यार्थ को छोड़ दूसरा लक्ष्यार्थ ग्रहण किया जाय वहां 'रूढिलक्षणा' होती है।" उदाहरन 'दोहा' जथा- फलो सकल मन-कामना, लूट्यौ'अगनित चेंन । भाज अँचे हरि-रूप सखि, भए प्रफुल्लित नेन । अथवा पुनः 'कबित्त' जथा- अँखियाँ हमारी दई-मारी सुधि-बुधि हारी, मोहू तें जु न्यारी 'दास' रहें सब काल में। कोंन गहै ग्याँन, काहि सोंपत सयाँने, कोंन लोक-लीक जॉन ए नहीं हैं निज हाल में॥ प्रेम-पगि रहीं, महा मोह में उमगि रही, ठीक ठगि रहीं, लगि रहीं बनमाल में। लाज को अँचै के, कुल-धरम पचै के, बिथा-बुंदन' सँचै के भई मगन गुपाल में अस्य तिलक मन-कामना वृच्छ नाहीं, जो फल, फलियो सब्द बृरन पर होत है। बच्छना-सक्ति ते मन की कामना को फली बोलियतु हैं। ऐसे-ही-ऐसे सदन को ऊपरले दोहा और या कबित्त ने अधिकार है, सो जाननों। पा०-१. (प्र०) के...। (३०) कौ...1 २. (प्र०-२) सों...। ३. (का० प्र०) कहत निरूढी लच्छना, जे कवि बांनी सिद्ध । ४. (प्र०) लूटेउ । ५. (प्र०) ओक । (६०) वोक। ६. (प्र०-२) ए नाहिं नित हाल में। ७. (का० प्र०) माया। ५. (भा० जो०) लगि...। ६. (प्र०) (प्र०-२) बंधन...! ____ *, का०प्र० (भानु) पृ० ७२ | व्यं० म० (ला० भ०) पृ० १० 1 +, का० प्र० (भानु) पृ० ७२ । व्यं० मं० (ला० भ०) पृ० १० म० म० (अजान) पृ० ३० । का० प्र. (भानु) पृ० १७३ | व्यं० म० (ला० भ०) पृ० ११
पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५५
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।