काव्य-निर्णय ५११ वि.-"जहाँ वस्तुओं के विदित क्रम को, जिन्हें करतार (ब्रह्मा) ने रच रखा है, उन्हें काव्य में क्रमशः लाने-प्रयोग करने पर "रत्नावली" अलंकार बनता है। अर्थात् प्रस्तुत अर्थ में क्रमानुसार अन्य नाम भी प्रकट हों, अथवा जहाँ प्रस्तुत अर्थ के साथ-साथ अन्य प्राकरणिक नाम वा अर्थ भी प्रसिद्ध क्रम से निकलें वहाँ यह अलंकार बनता है, यथा- "रत्नावलि' प्रस्तुत-मरथ, क्रम ते पौरों माँम ।" -भाषा-भूषण रत्नावली का अर्थ रन-समूह वा उनकी पंक्ति है। अतएव इस अलंकार में रनों की पंक्ति की भाँति क्रम से प्राकरणिक अर्थों का क्रमशः वर्णन होता है, क्योंकि एक अर्थ के साथ उसका एक अन्य प्राकरणिक अर्थ भी रहता है और उसे बोध कराना ही इस अलंकार का विशेष लक्ष्य होता है। कुवलयानंद में इसका लक्षण-"ऋमिकं प्रकृतार्थानां न्यासं 'रत्नावली' विदुः" (प्रस्तुत अर्थ में जहाँ क्रम से और अन्य नाम भी निकलें...) माना है।" रत्नावली अलंकार को संस्कृत-साहित्य को भांति ब्रजभाषा में भी कुछ-ही अलंकाराचार्यों ने माना है और इसका लक्षण कुवलयानंद से-ही अपनाया गया है।" अस्य उदाहरन जथा- स्याँम-प्रभा इक' थापि, जुग उरजन तिय के किए। चारु पंचसर छापि, सात कुभ के कुंभ पर ।। रबी सिर-फूल, मुखै ससि-तूल, मही-सुत-बंदन-बिंदु सु भाँवी'। पनाँ बुध, केसर-भाड़ गुरौ, नक-मोतिऐ सुक्र करै दुख-साँती॥ संनि' हैं सिंगार, बिधु-तुंद* जु बार, सजै मखकेतु सबै तँन काँती। निहारिऐ लाल, भरौ सुख-जाल, बँनी नव-बाल नवग्रह-पाँती॥ वि०-'दासजी के इस उदाहरण में प्रिया-नायिका के सौंदर्य-वर्णन प्रस्तुतार्थ में रवि-श्रादि नव ग्रहों के नाम क्रमशः बतलाये गये हैं। रत्नावली । का निम्नलिखित किसी कवि का उदाहरण भी सुंदर है, यथा- पा.-१.(३०) पिक...। २. ( का० ) (३०) (प्र०) भांति । ३. ( का०) (३०) (प्र०) सांति । ४.( का०)(३०) (प्र०) सनी...। ५. ( का०)(३०) (प्र०)-तु'दबार...। (सं० पु० प्र०) तुदजबार...। ६. ( का०) (३०) (प्र.) कौति । ७. ( का० ) (३०) मरै.... ( का०) (३०) (प्र. पाँति ।
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